Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 57
________________ जनदर्शन में अनेकान्तबार १६ गत सिर खुजाना कपड़ा हिलने आदि विशेष धर्मों के न की सीमा को छूते हैं इसलिये इसमें यह शर्त लगायी गयी दिखने पर । किन्तु इन विशेषों का स्मरण रहने पर ज्ञान दो है कि जो दृष्टिकोण अन्य दृष्टियों की अपेक्षा रखता है कोटियों में दोलित हो जाता है कि यह स्थाणु है या पुरुष उनकी अपेक्षा, उपेक्षा, या तिरस्कार नहीं करता वही किन्तु अनेकान्तवाद में विशेष धर्मों की अनुपलब्धि नहीं है। सच्चा नय है और ऐसे नयों का समूह ही अनेकान्तदर्शन सभी धर्मों की सत्ता अपनी-अपनी निश्चित अपेक्षाओं से है।" स्वीकृत है। तद्धर्मों का विशेष प्रतिभास निर्विवाद सापेक्ष रीति से बनाया गया है। अपनी-अपनी अपेक्षाओं से अन्य सभी दर्शनों के सिद्धान्तों की अपेक्षा जैनदर्शन संभावित धर्मों में विरोध की कोई सम्भावना ही नही है की यह विशेषता है कि जहाँ सभी दर्शन अपने से अतिरिक्त जैसे एक ही देवदत्त भिन्न-भिन्न पुत्रादि सम्बन्धियों की दूसरे दर्शनों का खण्डन करते हैं वहाँ यह सभी का संग्रह दृष्टि से पिता पुत्र, मामा आदि निर्विरोध रूप से व्यवहृत करके उन्हें एक अखण्ड रूप देने में ही दर्शनशास्त्र का होता है उसी तरह अस्तित्वादि धर्मों का भी एक वस्तु मे सार्थक्य दिखलाता है। इस प्रकार दर्शनों के एकांनी कथनों रहने में कोई विरोध नही है। को समन्वित करने की क्षमता इस अनेकान्तवाद सिद्धान्त अनेकान्तदृष्टि और स्याद्वाद भाषा का अहिंसक उद्देश्य में है। इस सिद्धान्त का आश्रय लेने पर संसार का कोई था समस्त मत-मतान्तरों का नय दृष्टि से समन्वय कर भी दर्शन या वाद असत्य दिखाई नही देता है इसमें केवल समत्व की सृष्टि करना। अनेकान्तदर्शन के अन्तः यह विभिन्न दर्शनों को नयदृष्टि से देखने की अपेक्षा है। यदि रहस्य भी है कि हमारी दृष्टि वस्तु के पूर्णरूप को जान इस सिद्धान्त को अपनाया जाय तों विभिन्न दृष्टिकोणों को नही सकती जो हम जानते हैं.वह आंशिक सत्य है हमारी समझने सोचने के साथ ही वास्तविक वस्तु स्वरूप का तरह दूसरे मतवादियो के दृष्टिकोण भी आंशिक सत्यता सम्यकज्ञान हो सकेगा। १. जैनदर्शन. डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य पृ० १४। ६. आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदिवस्तु । २. अनेकेऽन्ता अंशा धर्मावात्मास्वरूप यस्य तदनेकान्ता तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यद् इति त्वदाज्ञाठिषतां प्रलाथा। त्मकमिति व्युत्पत्तेः । षड्दर्शन समुच्चयः हरिभद्र स्याद्वादमञ्जरी का० ५.. पृ. ३२२ । १०. आप्तमीमांसाः तत्वदीपिका प्र० गगेशवर्णी संस्थान ३. अनेकान्यात्मक वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम् । वाराणसी पृ० ३३०। एकदेशविशिष्टोऽर्थोनयस्य विषयोमतः ॥ ११. षड्दर्शन समुच्चयः हरिभद्र पृ० ३३० प्र० भारतीय न्यायावतार कारिका २९ । ज्ञानपीठ । ४: सदसन्नित्यादि सर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः । १२. सिद्धिविनिश्चयटीका संपादक पं० महेन्द्रकुमार न्याया अष्टशती पृ० २८६ । चार्य प्रस्जावना पृ० १३४ । ५. एकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्पर विलिटय- १३. तत्वार्थवार्तिक अकल कदेव अ० २७ पृ० १२२। . विरुद्धशक्तिद्वय प्र. भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशनमनेकान्तः। १४. तत्त्वार्थवार्तिक-भट्टाकलदेव ४४२ पृ० २५० । समयसार (आत्मख्याति) १०।२४७ । १५. सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् ।। ६. भेदाभेदकान्तयोरनुपलब्धेः अर्थस्य सिद्धिः अनेकान्तात् । असदेव विपर्यासान्न चेन व्यवतिष्ठते ॥ ७. अपरिव्यक्तस्वभावेन उत्पाद व्यय ध्र वत्वसंबद्धम् । आप्तमीमांसा समन्तभद्र १५ । गुणवच्चसपर्यायम् यत्तद्रव्यमिति अवन्तिपप्रवचन- १६. तत्त्वार्थवार्तिक-भट्टाकलदेव । पृ० १२२ । ' सार-३४ । १७. अध्यात्म अमृतकलश-आ० अमृतचन्द'टीकाकार। 5. गुणपर्ययवद्रव्यम् ५.३८ । पं० जगगन्मोमनलाल शास्त्री २५२ पृ० ३५३ । । उत्पादव्यय धौव्ययुक्तं सत् ५.३० । (शेष पृष्ठ २३ पर)

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