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वर्तमान जीवन में वीतरागता की उपयोगिता
कु० पुखराज जैन, एम. ए., जयपुर
जीवन जीने का नाम है, जीना एक कला है और वस्तु अपने आप में अच्छी-बुरी नहीं। अच्छे-बुरे की कसोटी दुनियाँ में कला के कलाकार चंद लोग ही हुआ करते है। सार्वभौमिक व सार्वव्यापिक नहीं। यह कसौटी हमेशा जीते तो सभी हैं गरीब-अमीर, विद्वान-मूर्ख, लेकिन गौरव- व्यक्तिपरक ही हुआ करती है जिसका आधार इच्छापूर्ण जीवन उसे ही कहा जायेगा जिसमे जीवन के अधिका- अनिच्छा अर्थात् अनुकूल विषयों से राग व प्रतिकूल विषयो धिक क्षणों में सुख की अनुभूति हो । 'जीवन' का दूसरा से द्वेष है इसी आधार पर यह इष्ट विषयों का संभोग नाम है-'सूख की अनुभति' और जब प्राणी सुख की और अनिष्ट विषयों का वियोग चाहता है। और जब अनुभूति करता है (दुख की भी) तब अनुभूति के काल से पूर्ण पुण्य का उदय नहीं होता तो इष्ट विषयों की प्राप्ति निकल कर आने के बाद ही उसे जीवन के अस्तित्वपने का नहीं होती और व्यक्ति आकुलित होकर दुखी होता है। वोध होता है और तत्क्षण उमे जीवन की गरिमा अनुभव कुल मिला कर यही आज के व्यक्ति की स्थिति है में आती है। निरन्तर व्यक्ति के सुख के अभाव व दुख के यह स्थिति सभी व्यक्तियो (गरीब-अमीर, स्त्री-पुरुप, वेदन की स्थिति 'जीवन' नही, 'जीवन' के नाम पर होने बालक से वृद्ध) मे पायी जाती है। व्यक्ति अपनी ही इच्छा वाला 'निरन्तरण मरण' ही है । और ऐसा 'जीवन' जीवन अनिच्छा से परेशान है विकल है, सतप्त है और इस आशा के नाम पर 'कलक' ही है।
से कि भविष्य में मेरी आशा पूरी होगी उसी अंधी दौड़ वर्तमान भौतिक सभ्यता व्यक्ति को ऐन्द्रिक सुख को मे शामिल है-यही वर्तमान जीवन का शब्द चित्र है। ओर उन्मुख करती है। वर्तमान में विज्ञान व तकनीक के अत्यल्प प्रतिशत ऐसे मुमुक्षुओं का है जो इस प्रकार 'आशातीत विकास ने पंच इन्द्रिय के भोगों की प्रचुर मात्रा की आकूलता विकलता दु ख व परेशानी से मुक्ति पाने के व्यक्ति को भेंट की है और यह मेंट निरन्तर वृद्धिगत है। लिए सही उपाय की खोज मे प्रयत्नशील है और सुख का विषय-भोग के साधनों की प्रचुरता व्यक्ति को काफी हद मार्ग खोजकर तत्परता से उस मार्ग पर चलने को कृततक अपने आप से (अध्यात्मिक दृष्टि से) दूर करने के सकल्प है। यह मार्ग 'वीतरागता' का है, सुख का कारण लिए जिम्मेदार है । जो व्यक्ति के लिए दुःख का कारण है, मुख रूप है, भले ही इस मार्ग को जानने वाले, मानने है लेकिन व्यक्ति भुलावे में है और वह उस विज्ञान की बाले व इस पर चलने वाले अति अल्प हों लेकिन यह भेट को स्वीकार करने और निरन्तर भोग करने में अपने मार्ग तीन काल व तीन लोक में सच्चा है इस पर चलकर आपको व्यस्त पाता है। और किन्ही क्षणो मे सुख का सच्चा-सुख प्राप्त करने वाली महान आत्माएं सूर्य की अनुभव भी करता है, लेकिन अन्ततोगत्वा भौतिक सामग्री भाति इस मार्ग को सदैव समय-समय पर आलोकित करती व इच्छाएं-वासनाएं दोनों ही उपलब्ध व उपस्थित होने के है। (तीर्यकर की दिव्यवाणी) अंधकार में भटकने वाले बाबजद भी व्यक्ति अपने आपको भोग भोगने में असमर्थ इस आलोक से प्रकाश प्राप्त करते है और इस प्रथानुपाता है और परेशान होकर नवीन सिरे से सुख की खोज - गामी बनकर पूर्ण वीतरागता को प्राप्त हो जाते है । वोतकरता है। वह देखता है-"विषय-भोगों की सामग्री रामता की महिमा गाते हुए विद्वद्वर्य पंडित दौलतराम प्रचर मात्रा में मेरे सामने है और इच्छाएं भी हैं लेकिन जी ने लिखा है.- - -
.'. विषय भोग के बाद भी इच्छाएं समाप्त नही हो पा रही तीन भवन में सार, वीतराग विज्ञानता। हैं तो वह समझता है कि कभी समाप्त होने वाली यह शिव स्वरूप शिवकार, नमहुं त्रियोग सम्हारिक । इच्छाओं की कतार ही मुझे आकुलित व्याकुलित व दु.खी -- जो "वीतराग विज्ञान" तीन लोक में सार तत्व है करती है।" यह पुनः सोचता है इच्छा-अनिच्छा का मूल उसे दौलतराम जी ने वीतरागता की महिमा मोक्ष सुख राग-द्वेष है-अर्थात् आत्मा का विकारी परिणाम है। देने वाली व मोक्ष स्वरूप होने की वजह से . गायी है।।