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अपभ्रंश काव्यों में सामाजिक चित्रण
बाल विधवा के लिये कहा गया है कि उसे सादा के प्रति उसका घोर विश्वास देख कर वह क्रोधाभिभूत भोजन और उच्च विचार रखना चाहिए। सदैव शुभ्र-वस्त्र हो जाता है। पिता को पुत्र की यह प्रवृत्ति अपमानजनक धारण करना चाहिए। किसी भी प्रकार का शारीरिक प्रतीत होती है। अत. वह उसका विवाह एक कोढ़ी के शृंगार नहीं करना चाहिए, काम-वासना को उभाड़ने वाले साथ कर देता है। इस सन्दाभांश से विवाह प्रथा के रगीन एवं रक्ताभ वस्त्र भूल कर भी धारण नहीं करना सम्बन्ध में निम्नलिखित संकेत मिलते हैचाहिए। इसी प्रकार ताम्बूल सेवन, इत्र लेपन, धूर्तक्रीडा, १. विवाह के पूर्व पिता अपनी कन्या की सम्मति लेता लोगों से हंसी।मजाक, विरह कथाओ का सुनना-सुनाना, था और विभिन्न प्रकार के बरो का परिचय एवं घी एवं दूध मिथित गरिष्ठ भोजन, जल्दी-जल्दी माथा वैभव इत्यादि का वर्णन कर कन्या की भावना को धोना, शून्यगृह में रहना, घर की दीवालो या छत पर चढ जान लेता था। कर दिशाओ का निरीक्षण, गाना गाना, मार्ग मे भटकना, २. वर-निर्वाचन में पिता का स्वातन्त्र्य था। यद्यपि वह जोरो से किसी को कोसना, परिवार के लोगो से मटना परिवार के व्यक्तियो से सम्मति लेता था, पर पिता आदि कार्य बजित बताये गये है। इनके त्याग के बिना का निर्णय ही सर्वोपरि होता था। उज्जियिनी नरेश बाल-विधवा की दुर्गति अचिन्तनीय है।'
राजा पृथ्वीपाल को उसके निर्णय से विचजित करने विवाह-संस्था :
के लिए रानी एव अमात्यो का प्रयास व्यर्थ जाता है। ___ व्यक्ति के चरित्र निर्माण मे विवाह-सस्था का महत्व- ३. अनुचित और अनमेल विवाहो को समाज उचित नहीं पूर्ण योग है। विवाहित होने से यौन सम्बन्ध एव विषय समझता था। मैना सुन्दरी का कोढ़ी के साथ विवासीमा का सकोच दोनो ही बातें एक साथ सम्पन्न हो जाती सम्बन्ध होते देख कर समस्त-प्रजा के मुख से है। स्नेह, प्रेम, सहयोग एवं सहानुभूति की पाठशाला त्राहि-त्राहि की ध्वनि निकलने लगती है तथा सभी परिवार ही होती है। गुरजनो के प्रति आदर और भक्ति- प्रजाजन राजा के इस कुकृत्य पर उसे कोसने लगते है। भाव का प्रदर्शन एव सत्य दान, तप, त्याग, मित्रता, विवाह पद्धति : पवित्रता, सरलता एव सेवा प्रभति सद्गुणो का विकास विवाह रचाने के लिए अनेक प्रकार के रीति-रिवाजों विवाहित परिवार के बीच ही सम्भव है। अतः परिवार को चर्चायें आई है। कविधाहिल ने अपने 'पउमचरिउ' में का आधार विवाह माना गया है।
पद्मश्री के विवाह का वर्णन करते हुए लिखा हैअपम्र श चरित काव्यो में आप-विवाह को ही ज्योतिषियो द्वारा शुभतिथि के निश्चल किये जाने पर सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। विवाह के पूर्व वर-वधू का विवाह की तैयारिया प्रारम्भ कर दी गई। विवाह-सामग्री सम्पर्क होना या अन्य किसी कारण से प्रेम का जागृत होना का सकलन किया जाने लगा। नाते-रिश्तेदारो को न्यौते अथवा प्रेमी-प्रेमिकाओ को एकत्र करके प्रेम के विकसित भेजे जाने लगे। सभामण्डप सजा दिया गया, बच्चों के होने का अवसर नही दिया गया है, क्योकि इन कवियो की आनन्द का पारावार न रहा। भावी वधू का मन कुलांचे दृष्टि में विवाह एक ऐसी पवित्र-सस्था है जिसका दायित्व मार रहा था, वाद्यो की ध्वनि मे ब्राह्मण लोग श्रतिपाठ पूर्णतया माता-पिता पर है। सिरिवाल चरिउमे आए हुए कर रहे थे। सुहागिन स्त्रियां कौतुकपूर्ण गीत गा रही एक कथानक के आधार पर उज्जयिनी नरेश राजा थी। कुछ समय बाद कन्या का अभिषेक किया गया, नवीन पृथ्वीपाल अपनी बडी पुत्री सुरसुन्दरी से प्रसन्न होकर कीमती वस्त्राभूषणों से सजा कर उसकी आंखों में अंजन लगा उसका विवाह कौशाम्बी नरेश के राजकुमार हरिवाहन के दिया गया, फिर उसे कुलदेवी के दर्शनार्थं ले जाया गया। साथ कर देता है किन्तु छोटी पुत्री मैना' सुन्दरी की इधर वर भी सज-धज कर हाथी पर सवार होकर स्पष्टवादिता और धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा, एवं भवितव्यता बारात के साथ चला। सखियां उसे मातृमन्दिर ले गई। १. अप्प० २।२० ।
२. सिरिवाल--१२।