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१२, वर्ष ३५, कि०२ कि बाद में धवल स्वयं पहुंचता है तथा श्रीपाल को वहां का शिकार होना पड़ा और बेचारे को परदेश भाग जाना के राज-दरबार में एक सम्मानित व्यक्ति के रूप में देखता पडा। है तब धवल भाड़ों की सहायता से उसे अपमानित करता नारी की स्थिति : है तथा राजा की दृष्टि में उसे पतित सिद्ध कर देता है। परिवार में नारी की स्थिति परतन्त्र थी। उसके यद्यपि धवल की यह कुटिलता बाद में स्पष्ट हो जाती है। लिये जो आचार-संहिता मिलती है, वह बडी दुरूह है। परिवार:
विवाहिता-नारी को अपने पति के लिये मन-वचन एव कार्य समाज का घटक परिवार है। प्रत्येक कवि या से पूर्णतया समर्पित रहने का आदेश दिया गया है तथा साहित्यकार अपनी रचना में पारिवारिक सम्बन्धो पर कहा गया है कि वह दुश्चरित्र एव निर्लज्ज नारियो की अवश्य ही प्रकाश डालता है। अपभ्रश काय्यो मे भी संगति कर अपने कुल, एव शीलव्रत को कलकित न करे। पारिवारिक सम्बन्धों का विस्तृत विवेचन मिलता है, उन्हें अपना जीवन इस प्रकार का बनाना चाहिए कि कोई क्योंकि कथानायक का जन्म किसी परिवार मे होता है। अंगुली भी न उठा सके और दोनो कुलो पर किसी भी उस परिवार में माता-पिता आदि गुरुजनो के साथ भाई, प्रकार का कनक न लग सके। भावज, बहिन, पुत्र, मित्र, दास-दासियां आदि विद्यमान परित्यक्ता नारियों को अपभ्र श काव्य मे दुर्भाग्य का रहते हैं। अत: कवियो ने इसके पारस्पिरिक सम्बन्थो की भण्डार कहा गया है। उनके लिए कहा गया है कि उन्हे चर्चा कर उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी उपस्थित दुर्जनो एव आवारागर्दी करने वालो से अपने को छिपा कर किया है।
रखना चाहिए। सिर उघाड़ कर रास्तो एव बाजारो मे यह परिवार-व्यवस्था सम्मिलित परिवार व्यवस्था के
नही धूमना चाहिए। दिन में शयन नहीं करना चाहिए रूप में चित्रित है । अतः सास-बहू की कलह, ननद-भौजाई
तथा दूगरो के भाग्य पर ईर्ष्या नहीं करना चाहिए। उन्हे
तथा के झगड़े, सौतियाडाह तथा परिवार मे परस्पर में चलने शालवत धारण
शीलव्रत धारण कर सात्विक जीवन व्यतीत करना ही वाले शीतयुद्ध आदि के प्रसंग प्रचुर मात्रा मे मिलते है।
श्रेयस्कर है। महाकवि स्वयम्भू ने सास-बहू के झगड़े को अनादिकालीन
प्रौढा विधवाओ के विषय में कहा गया है कि पति कहा है।' सौतिया डाह के प्रसंग आनुषंगिक एव स्वतन्त्र
की मृत्यु पर विधग को चिता मे जल मरने का प्रयास दोनों ही रूप में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। एतद्विषयक
नही करना चाहिए। सिर पटक कर हाय-हाय करना स्वतन्त्र कृति के रूप में 'सयधदहमी कहा' सुप्रसिद्ध रचना
उचित नही। कवियों ने उन्हें आदेश अथवा उपदेश दिया है। इसी प्रकार पुष्पदन्त कृत महापुराण' में एक प्रसंग
है कि उन्हे मार्ग मे अत्यन्त वेगपूर्वक अथवा अत्यन्त मन्दआया है जिसके अनुसार महाराज कृष्ण की सत्यपामा एव गति से चलना सर्वथा छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार रुक्मिणी नाम की दोनों पत्नियों में पर्याप्त ईर्ष्या चलती बिना कार्य के दूसरों के घर आना-जाना या रात्रि मे है। उन्होंने परस्पर में यह शर्त रखी थी कि जिसके बेटे अकेनी घूमना त्याज्य बताया गया है। सहिष्ण बन कर का पहले विवाह होगा, वह दूसरी का सिर मुंडवा देगी। आत्मोद्धार का प्रयास आवश्यक बताया गया है और जोर 'धण्णकुमार चरिउ' में कहा गया है कि अपने माता-पिता देकर कहा गया है कि जो नारी उत्तम शीलव्रत धारण के अत्यन्त दुलारे धन्यकुमार को अपने ईर्ष्याल बड़े भाइयों नही कर सकती, उसकी वही दशा होती है जो सड़ी एवं भौजाइयों के तीखे व्यग्य वाणी एवं कट आलोचनाओ कूतियों अथवा जूठी पातल की होती है।' १. पउमचरिउ-२२१५५ ।
५. अप्पसंवोह० २।१७ । २. भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित ।
६. उपरिवत्-२०१८, २१, २३ ३. महापुराण ६१३३, भाग ३, पृष्ठ १७१ ।
७. उपरिवत्-२।१६, २१ ४. धण्ण० शह-१०।