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जैनदर्शन में अनेकान्तवाद
प्रशोककुमार जैन एम० ६० शास्त्री, नई दिल्सी
भारतवर्ष का उर्बर मस्तिष्क अनेक सुन्दर और सार्व- एकान्त की अनुपलब्धि होने से अर्थ की सिद्धि अनेकान्त से भौम बिचारों की जन्मभूमि रहा है। यहाँ के विभिन्न-दर्शन होती है।' दर्शनशास्त्र में प्रयुक्त नित्य-अनित्य, भिन्नअपनी स्वतन्त्र मान्यता और विचारधारा को लेकर उद्भूत अभिन्न, सत्-असत्, एक-अनेक आदि सभी अपेक्षित धर्म हए और उनका विकास होता रहा। उनकी अपनी है। लोक व्यवहार में भी छोटा-बड़ा, स्थल-सक्ष्म, ऊँचामान्यताओं में से अनेक ऐसी धारायें निकली जिनके नाम नीचा, दूर-नजदीक, मूर्ख-विद्वान आदि सभी आपेक्षिक हैं। पर तत्तत्सम्प्रदायों का बोध होने लगा उदाहरणतः एक ही समय में पदार्थ नित्य और अनित्य दोनों हैं किन्तु मध्यम प्रतिपदा के लिए बौद्ध, अद्वैतवादी विचारधारा के जिस अपेक्षा से अनित्य है उसी अपेक्षा से नित्य नहीका लिए नैयायिक और सांख्य, भोगवादी विचारधारा के लिए प्रत्येक वस्तु द्रव्य अपेक्षा नित्य एवं पर्याय अपेक्षा अनित्य चार्वाक, आत्मवादी विचारधारा के लिए पौराणिक विशेष है। पर्याय उत्पाद और व्यय स्वभाव वाली है जो कि वस्त
भोकान्तवाट का जब नाम मे अनित्यता सिद्ध करती है साथ ही उत्पाद-व्यय से वस्तु आता है तो उससे जन विचारधारा सम्यगूपलक्षित होती है। में हम उसकी स्थिति की ध्रुवता का भी प्रत्यक्ष अमभव जैन दार्शनिक साहित्य का सामान्यावलोकन करते हाता ह यहा स्थिरता-धवता वस्तु मे नित्य धर्म का
अस्तित्व सिद्ध करती है जो अपनेअस्तित्व स्वभाव को न समय आज तक उपलब्ध समग्र साहित्य को ध्यान मे रख
छोड़कर उत्पाद, व्यय तथा ध्रुवता से संयुक्त है एव गुण कर प्रो० महेन्द्रकुमार जी ने इस प्रकार कालनिर्धारण
तथा पर्याय का आधार है सो द्रव्य कहा जाता है। यही किया है।
लक्षण उमास्वामि ने भी तत्त्वार्थसूत्र में किया है। अन्य १. सिद्धान्त आगमकाल : वि० ६वी शती तक।
दर्शनों ने किसी को नित्य और किसी को अनित्य माना है २. अनेकान्तस्थापनकाल : वि. ३ री से ८वी तक।
परन्तु जनदर्शन कहता है कि दीपक से लेकर आकाशपर्यन्त ३. प्रमाण व्यवस्थायुग : वि० ८वी से १७वीं तक ।
सब पदार्थों का स्वरूप एक-सा है अत: वस्तु का स्वभाव ४. नवीन न्याय युग : वि०१८वीं से...
नित्य अनित्यादि अनेक धर्मों के धारक स्याद्वाद (अनेकान्तजैनदर्शन के अनुसार वस्तु अनेकान्तात्मक है। अनेक वाद) की मर्यादा को उल्लघन नहीं करता। एकान्त से अन्त धर्म या अंश ही जिसका आत्मा स्वरूप हो वह पदार्थ नित्य-अनित्य आदि कुछ भी नहीं है किन्तु अपेक्षा से सब अनेकान्तात्मक कहा जाता है।' सभी ज्ञानों का विषय है। अनेकान्त और स्याद्वाद ये दोनों पर्यायवाची नहीं है अनेकान्तात्मक कहा जाता है। सभी ज्ञानों का विषय किन्तु अनेकातन्तवाद और स्याद्वाद पर्यायवाची हो सकते हैं अनेकान्तात्मक वस्तु है और नय का विषय एक देश से यथार्थ मे अर्थ का नाम अनेकान्त है। अनेक धर्मों के विशिष्ट वस्तु है।' अकलङ्कदेव ने अनेकान्त का लक्षण इस प्रतिपादन कस्ने की शैली का नाम स्याद्वाद है। सभी प्रकार किया है। अनेकान्त की सीमा के अन्दर वस्तु के
प्रमाण या प्रमेयरूप वस्तु में स्व-पर द्रव्य की अपेक्षा क्रम अनन्त धर्मों का समावेश होता है एक वस्तु में वस्तुत्व की और यूगपद रूप से अनेक धर्मों की सत्ता पायी जाती है सिद्धि करने वाले परस्पर विरोधी द्रव्य पर्याय रूप दो जिस रूप से घड़े की सत्ता हो उसे स्वपर्याय तथा जिससे
शक्ति धर्मों का युगपद् एकत्र अविनाभाव अबिरोध सिद्ध' घड़ा व्यावृत होता हो उन्हें पर पर्याय समझ लेना चाहिए। क रना यही अनेकान्त का मुख्य प्रयोजन है। भेदाभेद में घड़ा पार्थिव होकर भी धातु का बना हुआ है मिट्टी या