Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ गत कि० ४ से आगे जीबन्धर चम्प में पाकिञ्चन्य 0 राका जैन, एम० ए. जीवन्धर कुमार के मुखारविन्द से आकिञ्चन्यादि उपस्थापित करता है तथा वैसे ही वचनों को कहता है। धर्मों को सुन कर कृषक अति प्रमन्न हुआ और उमे धारण जीवन्धर स्वामी ऐसे सिद्धान्त के स्पष्ट उदाहरण हैं। कर अपने जीवन को सफल मानने लगा। जीवन्धर कुमार जीवन्धर स्वामी के राज्यसिंहासीन हो चुकने पर वे ने भी उसे योग्य पात्र समझ अपने बहुमूल्य आभूषण देकर एक दिन अपनी आठो रानियों के साथ वासन्ती सुषमा निद भाव से जागे बढ दिए. और परम सुख का अनुभव से सुशोभित वानर-समूह को देख कर वे आनन्द-विभोर किया। आभूषण के मोह को त्यजकर परमानन्दानुभव हो उठे। एक बानगे, अपने बानर का अन्य बानरी के करना आकिञ्चन्य धर्म का परिपोपक है । माथ मोहित हुए देख रुष्ट हो गई। उसे प्रसन्न करने के प्रमूदित कृषक को सहर्ष स्व-स्वर्णाभूषण देकर मध्याह्न लिए बानर ने बहुत प्रयत्न किए पर वह सन्तुष्ट नहीं हुई। में वे नप कुँवर उद्यान मे विश्राम करने लगे। वे, जिनका अन्त मे निरुपाय होने पर वानर मृत-तुल्य पृथ्वी पर लेट मन काम विकार सम्बन्धी अन्धकार को नष्ट करने के लिए गया। यह देख बानरी भय से काप उठी और उसके पास सूर्य के समान था, जो कार्यज्ञ मनुष्यो में अग्रणी तथा ससार जाकर दोनों प्रसन्न हो गए। बानरी को प्रमुदित देख के समस्त भोग्य-उपभोग्य पदार्थ को अपना किञ्चित मात्र बानर ने एक पनस-फल तोड कर उसे उपहार में दिया भी न समझने वाले एव निरन्तर वैराग्य का चिन्तन करने परन्तु अकस्मात् धनपाल ने आकर बानरी के हाथ से वह में प्रवीण थे ऐसे जीवन्धर स्वामी पर आसक्त विद्याधरी के पनस-फल छीन लिया-यह सब दृश्य जीवन्धर स्वामी प्रणयीवचनो को सुन कर उस उद्यान से बाहर निकल पडे। स्व नेत्रो मे देख रहे थे। उनका दयलु सृदय वनपाल के इस स्व प्रिया को खोजते हुए व्यथित विद्याधर की दीनता भरे कार्य को देख कर व्यग्र हो उठा। उनके मन में यह वचनों को सुन कर जीवन्धर स्वामी ने आकिञ्चन्य के विचार तरगित होने लगापरिपोषक सान्त्वनाप्रदायक गम्भीर वचन उनमे कहे 'काष्ठाडूारयते कीशो राज्यमेतत्फलायते । धैर्योदार्यविजितक्षितिपति. प्रज्ञाविहीनो गुरु', मद्यते वनपालोऽय त्याज्य राज्यमिद मया ॥११११२ कृत्याकृत्पविचारशन्यसचिव सग्रामभीरुभेट । अर्थात्-यह वानर काष्ठाङ्गार के समान है, यह सर्वज्ञस्तवहीनकल्पनकविर्वाग्मित्वहीनो बुध , राज्यफल के समान और यह वनपाल मेरे सदृश आचरण स्त्रीवैराग्यकथानभिज्ञपुरुष सर्वे हि साधारणाः॥ कर रहा है अर्थात् जिस प्रकार बानर के द्वारा दिए गए अर्थात्--धीरिता और उदारता से रहित राजा, फल को वनपाल ने छीन लिया है उसी प्रकार मैंने इस बुद्धिहीन गुरु, कार्य-अकार्य के विचार से शून्य मन्त्री, युद्ध- राज्य को छीन लिया है अतः यह राज्य मेरे द्वारा भीरु योद्धा, सर्वज्ञ के स्तवन से रहित कवि, वक्तव्य कला त्याज्य है। से रहित विद्वान और स्त्री-विषयक वैराग्य की कथा से जिसने स्वराज्य हेतु काष्ठाङ्गार से लोहा लिया और अनभिज्ञ पुरुष ये सब तुच्छ व्यक्ति है अत मोहजनित उसे तथा अपने प्रतिद्वद्वियो को मौत के घाट उतारा वे ही विचारों को त्यागना चाहिए। यथार्थतः मच्चा आकिंचन- जीवन्धर आज इस राज्य को तुच्छ समझ कर अपना पुरुष वही है जो जैसा अन्दर है वैमा ही अपने को आकिञ्चन्य-स्वरूप उपस्थित कर रहे हैं। यह राज्य तैल

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145