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भारत के बाहर जैनधर्म का प्रसार-प्रचार
में बृहत्तर भारत के सिंहल, बर्मा, स्याम, कम्बुज, चम्पा, तिब्बत, कपिशा (अफगानिस्तान) गान्धार (तक्षशिला और श्रीविजय, नवद्वीप आदि प्रदेशो एव द्वीपो में भारतीय कन्दहार), ईरान इराक, अरब, तुर्की, मध्य एशिया आदि संस्कृति का जो प्रसार हुआ, उसमें भी जैन व्यापारियो एव में जैनधर्म के किसी न किसी रूप में किसी समय पहुंचने गृहस्थ जैन विद्वानों का कुछ न कुछ योग अवश्य रहा है, के चिह्न प्राप्त होते है। चीन देश के ताओ आदि प्राचीन ऐसा उक्त देशो के भारतीय-कृत गज्यो के इतिहास तथा धर्मों पर जैनधर्म का प्रभाव लक्षित है और चीन के उत्तरउनके देवायतन आदि स्मारको के अध्ययन से फलित कालीन बौद्ध साहित्य में भी अनेक जैन सूचक संकेत मिलते होता है।
है। जापान के 'जेन' सम्प्रदाय का सम्बन्ध भी कुछ लोग मध्य एशिया की रात नदी की घाटी के ऊपरी भाग जैनधर्म से जोडते है। प्राचीन यूनान के पाइथेगोरस व में एक भारतीय उपनिवेश ईसापूर्व दूसरी शताब्दी मे एपोलोनियस जैसे शाकाहारी आत्मधर्मो दार्शनिकों पर भी विद्यमान था। लगभग पाच मौ वर्ष पश्चात् पोपग्रेगरी ने जैन प्रभाव लक्ष्य या अलक्ष्य रूप मे रहा प्रतीत होता है। भयकर आक्रमण करके उसे ध्वस्त कर दिया था। अनुश्रुति ईसाई मत प्रवर्तक ईसामसीह भी जैनविचारधारा से अवय है कि खेतान के उक्त भारतीय उपनिवेश की स्थापना का प्रभावित हुए थे, ऐसा स्व० वैरिस्टर चम्पतराय जी ने श्रेय मौर्य सम्राट अशोक के पुत्र गजकुमार कुणाल को मिद्ध किया था। है-यह राजकुमार जैन धर्मावलम्बी था और इसी का पुत्र उपरोक्त अधिकाश विदेशों मे जैनो की छोटी-मोटी प्रसिद्ध जैन सम्राट सम्प्रति था। मध्याएशिया में सम्भवतया बस्तियाँ भी मध्यकाल तक रही प्रतीत होती है। इधर यही सर्वप्रथम भारतीय उपनिवेश था। फिर तो चौथी शती आधुनिक युग में दक्षिणी-अफ्रीका नैरोबी आदि प्रदेशों में ई० के प्रारम्भ तक काणगर से लेकर चीन की सीमा पर्यन्त जनो की अच्छी सख्या रहती आई है, पूर्व के फिजी आदि समस्त पूर्वी तुर्किस्तान का प्राय पूर्णतया भारतीयकरण हो द्वीपो में भी कुछ जैन है। यूरोप के विभिन्न देशों में चुका था। उसके दक्षिणी भाग में शैलदेश (काशगर), व्यापार-व्यवसाय अथवा विद्यार्जन के बहाने अनेक जैन चोक्कुक (यारकन्द), खोतम (खोतान) और चलन्द (शान- रहते रहे है। यही स्थिति अमरीका की है। वहां तो शान) नाम के तथा उत्तरी भाग में भस्क, कुचि, अग्निदेश पिछले दो-तीन दर्शको मे जैन प्रवासियो की संख्या में भारी और काओचग नाम के भारतीय संस्कृति के सर्वमहान बद्धि हुई है। प्रसारकेन्द्र थे । इन उपनिवेशों की स्थापना मे निर्गन्थ वर्तमान शती के प्रारम्भिक दशको मे वीरचन्द्र राघवजी (जैन) साधुओ और बौद्ध भिक्षुओ का ही सर्वाधिक योगदान गाघी, प० लालन, बैरिस्टर जगमन्दरलाल जैनी, बैरिस्टर था। कालान्तर मे निर्गन्थो का विहार उक्त क्षेत्रों में शिथिल चम्पतगय, ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद प्रभति विद्वानो ने विदेशों होता गया और बौद्धो का सम्पर्क एव आवागमन बढ़ता में धर्मप्रचार किया है। गत दशको मे १० सुमेरचन्द दिवागया, अत. गुप्तकाल के उपरान्त बौद्धधर्म ही वहाँ का कर, कान्हजी स्वामी, मुनि सुशीलकुमार, मुडबिद्री एवं प्रधान धर्म हो गया तथापि चौथी से सातवी शती ई० थवणवेलगोल के भट्टारक द्वय प्रभृति महानुभावो ने इस पर्यन्त भारत आने वाले फाह्यान, युवानच्वाग, इत्सिग कार्य को प्रगति दी है। स्व. बा. कामताप्रसाद जैन द्वारा आदि चीनी यात्रियो के वृत्तान्त से स्पष्ट है कि उनके समय सचालित अखिल विश्व जैन मिशन का एक मुख्य उद्देश्य मे भी उक्त प्रदेशो मे निर्गन्थ मुनियों का अस्तित्व था। विदेशो में धर्म प्रचार रहा और उसने अनेक विदेशी कुछ जैन मूर्तियाँ एव अन्य जैन अवशेष भी वहाँ यत्र-तत्र विद्वानो एव जिज्ञासुओ से सम्पर्क बनाने तथा उन्हें जैन प्राप्त हुए है। काश्यप के रूप मे तेईसवे तीर्थकर भगवान साहित्य उपलब्ध कराने की दिशा में बहुत कुछ प्रगति पार्श्वनाथ का बिहार भी उक्त देशो मे हुआ प्रतीत होता है की। किन्तु यथोचित व्यवस्था एवं साधनों के अभाव के अनेक प्राच्यविदो एव पुरातत्वज्ञो का मत है कि प्राचीन कारण हम उन सम्पर्क सूत्रों से भी लाभ नही उठा पाते । काल में जैनधर्म भी उन प्रदेशो मे अवश्य पहुना था।
-ज्योति निकुंज, लखनऊ