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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वष ३५ किरण २
वीर-सेवा मदिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण सवत् २५०८, वि. स. २०३६
अप्रल-जन १९८२
सम्बोधन जे दिन तुम विवेक बिन खोटेको मोह-वारुणी पी अनादि ते पर पद में चिर सोए। सुखकरण्ड चिरपिण्ड भापपद, गुन अनंत नहिं जोए ॥१॥ होय बहिर्मख ठानि रागरुव, कर्मबीज बह बोए। तफल सुख-दुख सामग्री लखि, चित में हरषे रोए ॥२॥ धवल ध्यान शुचि सलिल पूरत, प्रास्त्र मल नहि धोए। पर-द्रटानि को चाह न रोको, विविध परिग्रह ढोए ॥३॥ अब निज में निज जान नियत तह, निज परिनाम समोए।
यह शिव मारग सम-रससागर, 'भागचन्द' हित तो ए॥४॥ भावार्थ-हे चेतन, तूने ये दिन विवेक के बिना व्यर्थ गॅवा दिए। तू मोह-रूपो मदिरा को पीकर अनादि काल से निद्रा-मग्न रहा । तूने सुत्र के खजाने अपने चतन्य पद के अनत गुणों को नहीं देखा। और बाह्य-दृष्टि होकर राग की ओर देखा जिससे तूने अन न कर्मों के बीज को बोया--उसके फल-रूप सुख-दुख रूप सामग्री हुई और तू चित्त में सुखो-दुखा हुआ। तूने शुक्न ध्यान रूपो पवित्र जल से आस्रवरूपी मल को नहो धोया और पर-द्रव्यों को इच्छा को नहीं रोका तथा भांति-भांति के परिग्रह को वहन किया। अब अपने (स्वरूप) को जान कर उसमें अपने परिणामा को लगा, यहो समता रूपी रस का सागर मोक्ष का मार्ग है और इसी में तेरा हित है-ऐसा 'भागचद जा' कहते हैं।