Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 31
________________ जरा सोचिए फिर, एक बात यह भी तो है कि इस भव में मिला यश अगले भव में क्या सहारा लगाता है- -सम्बन्धित व्यक्ति को पता भी नही चलता कि कौन यश गा रहा है – 'आप मरे जग प्रलय हो, यदि नि कांक्षित भाव से कर्तव्य और धर्म समझ कर, यश-लिप्सा के भाव को छोड़ कर कुछ किया जाता तो पुण्यबंध अवश्य होता जो अगले भव मे साथ भी देता । | स्वामी समन्तभद्र उपदेश दे रहे है―नि काक्षित अग का और आज परिपाटी चल रही है कयानिलाभ और अन्यअन्य सांसारिक सुख कामनाओ की परन्तु जब कुछ देकर कुछ लेने की भावना से कार्य किया जाता है तब होता है शुद्ध व्यापार; और जब न्याय और कर्तव्य-बुद्धि मे, बिना फल की वाछा के किया जाता है तब होता है धर्म धर्मसुखदायी है और यह आदि की कामना, मानकापाय पोषक कहाँ तक ठीक है मोचिए ! 1 २. क्या धर्म-क्षेत्र में साहित्यिक चोरी संभव है ? धार्मिक क्षेत्र मे जब कोई कहता है-अमुक ने मेरे साहित्य की चोरी की है या मेरी रचना को अपने नाम से प्रकाशित करा दिया है, तो बड़ा अटपटा-सा लगता है और ऐसा मालूम होता है कि ऐसे प्रसंग मे चोरी का दोषारोपण करने वाले ने मानो चोरी की परिभाषा को ही भुला दिया हो आचायों ने कहा है ये मणिमुक्ताहित्ण्यादिषु दानादानयो प्रवृत्तिनिवृत्तिसभव तेष्वेव स्तेयस्योपपत्ते । - ७। १५२ 'यस्यदानादानसभवस्तस्य ग्रह्णमिति । - - ७११५१३ त० रा० बा० ॥ -- अर्थात् जिनमे देन लेन का व्यवहार है उन सोना-चाँदी आदि वस्तुओं के ( मूलरूप) अदत्तादान को ही चोरी कहते है [कर्म-मोकर्म के ग्रहण को नही—आदि ] - कवि ने ऐसा भी कहा है कि- 'मालिक की आज्ञा बिन कोय, चीज है सो चोरी होय ॥" फलत प्रसंग में देखना पड़ेगा जिसे कोई चुरा रहा है वह वस्तु किसी दूसरे की है या नही । विचारने पर स्पष्ट होता है वर्ण, शब्द, वाक्य और भावो का कोई एक निश्चित मालिक नहीं, जब जिसके जैसे है उतने काल उसके है — निकलने पर किसी अन्य के । क्योकि ये सभी सार्वजनिक - प्रकृति प्रदत्त है, इन पर किसी एक का आधिपत्य नही-कर्म और नोकर्म वर्गणाओं की भी ऐसी इस - २१ ही व्यवस्था है । शब्दवर्गणा आदि नकल के आधार पर समान रूप (जाति) मे एक काल अनेको में एक ही रूप में पाए जा सकते हैं--- सभी में स्वतन्त्र रूप से । उनमें वस्तु निर्दिष्ट न होने से उसके हरण का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । जैसे— एक सोने का पिण्ड है और उसकी परछाई भी है मूल पिण्ड के हरण करने वाला चोर होगा उसकी परछाई को पकड़ने वाला चोर नही होगा। उसी प्रकार वर्ण, पद-सरचना पूर्वो की प्रतिकृति होने से परछाई मात्र है और उनके हरण करने वाला चोर नही होगा। फलन. यदि रचना की नकल करने वाला चोर है तो चोर कहने वाला भी पूर्वो का नकलची होने से चोरी के पाप से बरी नही हो सकता और पूर्वाचार्य भी इमो श्रेणी मे जा पड़ेंगे, जैसा कि उचित नहीं है। देखेभगवती आराधना जीवकाण्ड ( प्रथम शती ईस्वी) गाथा ८० " "1 भावसंग्रह ४१ ३२ ३३ (दशवी मनी) गाथा ३५१ ६०१ ६०२ तिलोयपण्णति (१०६ ई० सदी) गाथा ५/३१८ धवला (पुस्तक पृ ६५ गाथा ३३ दर्शन प्राभूत (२-३ सदी) गाथा १०६ तत्त्वार्थशास्त्र सार ( १० वी सदी) श्लोक ५१ उपसहार २ आप्तमीमांसा श्लोक ५६ ६० "1 ( दशवी शती ईस्वी) गाथा १८ १७ २७ २८ 11 11 31 "" "1 " ३१ ३३ ६६ जीवकाण्ड गाथा ५७३ भक्ति परिक्षा प्रकीर्णक (११वी सदी) गाथा ६६ पंचसंग्रह (११वी सदी) १/१३ १/१४ तत्वानुशासन (११वी सदी) श्लोक ९/१४ २८ शास्त्र वार्तासमुच्चय ७/४७८ ७/४७६ 19 "

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