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'नति' के भाव है फलतः व्यवहारी होने के नाते मैं उन्हें 'अभिवन्दन' के स्थान पर 'अभिनमोऽस्तु' करता हूं। यतः यह पद मुनि के प्रति व्यवहारी है और साधु के प्रति इसका विधान भी है-ब्रह्मचारी को वन्दन-वन्दना, ऐलक व क्षुल्लक को इच्छाकार और मुनिश्री को नमोऽस्तु ।
५. घरहंत प्रतिमा का अभिषेक जैनधर्म सम्मत नहीं
ले० श्री बंशीधर शास्त्री एम० ए०, प्रस्तावनाः श्री डॉ० हुकुमचन्द, भारिल्ल, प्रकाशक श्री शान्ता व निर्मला सेठी, पृष्ठ २४, मूल्य ५० पैसे ।
यद्यपि लेखक ने अपने पक्ष में पर्याप्त प्रमाण दिए है तथापि यह पुस्तक, पथवाद के व्यामोह में पनप रहे वर्तमान विवादों के निराकरण में कहां तक सहायक हो
Y. Dravya-Samgraha, Edited by Dr. Bhoshal. Published by central Jain Pubtishing House, Assah, Introduction. Page-35-36. ५. जनसिद्धांतभास्कर, भाग ६, पृ० २६१ । ६. जैनशिलालेख संग्रह, भाग १, पृ० ३१
७. जैन एण्टीक्वेरी, जिल्द ५, न० ४ मै The Date of the Cohsecrction of Image पृ० १०७-११४। ८. जैनसाहित्य का इतिहास, प्रथम भाग, पृ, ३६३-३६५ । . Dravy-Samgraha C.J.P.H. Arrah. duction. Page 40.
Intro -
१०. जं०सा० इति० प्रथम भाग, वर्णी ग्रंथमाला, पृ० ३८६ ।
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सकेगी यह नहीं कहा जा सकता सामग्री शोधपूर्ण और विचारणीय है। पंथव्यामोह से अछूते रहकर पढ़ने वाले इससे अवश्य लाभान्वित होंगे। प्रधान जरूरी है।
Nauseating to them.... "The devas do come when There is an Adequate Cause, c.G., o do reverence to a world teacher, But will not Enter the Atmosphere of corruption and Filth otherwise. ---Rishabhadeva, the founder of
६. गृहस्थ के वर्तमान घडावश्यकों का विकास और पूजा पद्धति में विकृतियों का समावेश
(पृष्ठ २७ का शेषास)
Jainism P, 80-81 "आज हमें आश्चर्य होता है कि क्यों देवता लोग पृथ्वी तल पर हमें देखने नहीं आते ? लेकिन वे आज किन्हें देखने को यहाँ आयें पृथ्वी पर ऐसा कौन है जो ज्ञान, बल या महिमा में उनसे बढ़ा पढ़ा हो ? क्या वे कसाईघरों, माँस की दुकानों, गन्दे भोजनालयों तथा सजे
ले० पं० श्री भंवरलाल पोल्याका, प्रकाशक अ० भा० दि० जैन परिषद् राजस्थान, पृष्ठ २४ मूल्य ३० पैसे ।
छोटी सी पुस्तक मे विषय के अनुकूल पर्याप्त प्रमाण संकलित किए गए हैं। खेद है कि आज वे विषय भी पंथवाद से अछूते नहीं रहे। निष्पक्ष दृष्टि से पढ़ने का हमारा आग्रह है प्रयास सराहनीय है।
-सम्पादक
११. Dravy-Samgraha. Page 40.
१२. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलो० इतिहास, तारा प० वाराणसी, १०२३६ ।
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१२. जैन साहित्य का इतिहास वर्णों ग्रंथमाला प्रथम भाग पृ० ३६६-४०६ ।
१४. जैन सा० का इति० प्रथम भाग, वर्णी ग्रंथमाला, पृ० ४१२ ।
(पृष्ठ ३० का शेपाय )
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१५. Dravya - Samgraha, Arrah, Introduction, Page-42.
१६. जै० सा० इति०, वर्णी ग्रंथमालाः द्वितीय भाग पृ० ३४१ | ( मीनार श्रवणबेलगोला में पठित)
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भोगस्थलों की महान् वदवुओं को सूचने आयें ? क्या तुम चाहते हो, कि वे मूढ पुरोहितों, मोटे ताजे असन्तुष्ट अत्याचारियों, मिथ्याभाषी राजनीतिज्ञो बेईमान व्यापारियों, नरेशों या महाराजाओं को देखने आवें, जो न अपने वचन और न अपने हस्ताक्षरो का सम्मान ही करते हैं ? देवों की इन्द्रियां अति सुकुमार होती हैं अतः दुनियाँ के मण्डासों और नालियो की गंदगी उनके लिए अत्यन्त अरुचिकारी होगी । हाँ, देवलोग अवश्य आते हैं जब उनके आगमन के अनुरूप कारण हो यथा तीर्थंकर भगवान की पूजा के लिए। वे बुराई और गन्दगी से संयुक्त वातावरण में अन्यथा नहीं आते।"
-सम्पादक