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३२, वर्ष ३५, कि०१
अनेकान्त
समाधान के दो ही मार्ग है-उनको दिवगत न मानू 'शकुन प्रकाशन' को है जिन्होने श्री 'सुमन' जी के साथ या अपने को दिवंगत मानलू । दोनों एकत्र होगे तो विरोध कन्धे से कन्धा भिड़ाकर इस कार्य मे पूरा योग दिया है। मिट जायगा। पर, मैं किन शब्दो मे लिखू लेखक की श्री सुभाष जी जन-परिचित है, इनकी लगन शीलता और लेखनी ग्राह्यता को? जिसने दिवगतो को जीवन्त प्रस्तुत सूझ के परिणाम स्वरूप इनके सभी प्रकाशन उत्तम होते करके मुझे दिवंगत होने से बचा लिया और जिन्दा ह। रहे है। हमारी भावना है कि इस ग्रन्थ का अधिकाधिक हालांकि ग्रन्थ के महत्त्व को दृष्टिगत करके यह कहने वाले प्रचार हो और अधिक से अधिक जनता इसे मंगाकर कई मिले कि हम क्यों न मर गए ? यदि मर जाते तो ग्रन्थ लाभान्वित हो। मे नाम तो अमर हो जाता। ठीक ही है
४. प्राचार्य श्रोध सागरजी महाराज अभिवन्दन ग्रंश'नाम जिन्दा रहे जिनका, उन्हे मरने से डरना क्या है।'
सपादक . श्री धर्मचन्द्र शास्त्री, प्रकाशक : श्री दिगबर यद्यपि हिन्दी सेवियो के परिचय में इससे पूर्व भी
जैन नवयुवक मण्डल, कलकत्ता, साइज ११" x ६" पृष्ठ सीमित और महत्त्वपूर्ण कई ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है
३४+ ८४८ छपाई उत्तम, आकर्षक जिल्द व साजसज्जा, तथापि इस सकलन की अपनी विशेष महत्ता है और वह है-'खोज-खोजकर हिन्दी सेवियो के परिचयो का सकलन।'
मूल्य . १५१ रुपए। संलग्नसूची लेखककी भेद-भाव रहित, विशाल और उदार अभिवन्दन ग्रन्थ स्वय में अभिवन्दनीय बन पड़ा इसे दृष्टि को भी इंगित करती है कि उसने जाति-पथ, प्रसिद्ध- सयोजको का प्रयास ही कहा जायगा । अन्तरग-बहिरग सभी अप्रसिद्ध जैसे सभी प्रकार के भेद भावो को छोड़कर, मात्र श्लाघ्य । आचार्य श्री के प्रति उमडती अटूट भक्ति का परिहिन्दी भाषा की सेवा को परिचय-सकलन का माध्यम बनाया णाम सामने आया। मै तो देखकर गद्गद् हो उठा आयोहै। यही कारण है कि संकलन मे छोटे-बड़े सभी गुलदस्ते जको को जितना साधुवाद दिया जाय, अल्प होगा। के रूप मे महक सके है । ग्रन्थ भविष्य पीढ़ी के मार्ग-दर्शन,
इसमे सदेह नही कि भक्तगण ने अपना कर्तव्य पूरा उत्साह एव ऐतिहासिक ज्ञान-वर्धन में उपयोगी और सहायक सिद्ध होगा-युग-युगो तक अतीत युगो की गाथा बता
किया : पर, अब उन्हे महत्त्वपूर्ण उन प्रश्न-चिन्हो पर भी
विचार करना चाहिए जो चिह्न आचार्य श्री ने ग्रन्थ समर्पण एगा।
के अवसर पर लगाए है। जैसेग्रन्थ के प्रारम्भिक 'निवेदन' के अनुसार और ग्रन्थ के विस्तृत क्रमबद्ध अन्तरङ्ग कलेवर से भी यह निर्विवाद है 'साधु नरक में जाए चाहे निगोद में जाए' साधु की कि निश्चय ही 'सुमन' जी को इस कार्य के लिए अथक प्रशता से साधु बिगड़ता है' 'साधु का अभिवन्दन से कोई परिश्रम और बटोर-बटोर कर साहस जुटाना पड़ा है। प्रयोजन नही ।' पर, यह भी तथ्य है कि वृक्ष का 'सुमन' केवल अपनी सुगधि बिखेर पाता है, जबकि 'श्री क्षेमचन्द्र 'सुमन' अपनी यह आचार्यश्री का अन्तरंग है जिसे हम भक्तों को आदेश जीवित यश सुगंधि के साथ दिवगत हिन्दी सेवियो की यश रूप मे लेना चाहिए और भविष्य में ऐसी परम्पराओ से सुगंधि भी दिग्दिगन्त व्याप्त करने वाले 'सुमन' सिद्ध हो रहे (चाहे कर्तव्य ही क्यों न हों) मुख मोड़ना चाहिए जो साध है । लक्ष्य-भूत आगामी खंडों के प्रकाशन द्वारा यह सुगंध को पसन्द न हो या धार्मिक अस्थिरता मे कारण भूत हो शत और सहस्रगुणी होगी-ऐसा हम मानते है। 'पन्थान. सकती हों। फिर, निमित्तवाद में विश्वास रखने वालों को सन्तु ते शिवाः।'
तो यह परम आवश्यक है कि साधु को ऐसे निमित्त न कृति के प्रकाशन, साज-सज्जा, गेट-अप आदि मनमोहक जुटाए जिनमें साधु की साधुता क्षीण होने में सहारा मिले। और स्पृहणीय बन पड़े हैं, इसका श्रेय श्री सुभाष जैन, श्रावकों की भावना के अनुरूप मेरे भी आचार्य श्री में