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२० वर्ष ३५, कि०१
हो।
चाहिए जिसमें कम से कम हिंसा होने की सम्भावना रहती आत्मा की स्वाभाविक स्थिति ही पवित्रता है और वही
अहिंसा है। आज अपेक्षा है जहां हिंसा की रौरवी पिशाउपरोक्त चारों प्रकार की द्रव्य हिंसा वस्तुत: गृहस्थ चनी मुह बाए मानवता को निगलना चाहती है, अहिंसा के समूह के द्वारा की जाती है इस प्रकार की होनी वाली निरूपण, उस पर चर्चन, विमर्षण और बौद्धिक विश्लेषण हिंसात्मक व्यापारो के प्रति सावधानी रखने वाला प्राणी के क्रम से आगे बढ़ाया जाए ताकि लोक श्रद्धा जो हिंसा में अणुव्रत साधना के अन्तर्गत आता है। इसके अतिरिक्त इस गहरी पैठती जा रही है, अहिंसा पर टिकने को समनित दिशा में जो सूक्ष्म स्वरूप पर आचरण करता है वह प्राय. हो। संत साधक समाजी कहा जाता है । उसे सामान्यत. महाव्रत
महात्मा ईशु, अहिंसा पालन करने का निदेश देते हैं।
मास के साधना समुदाय का अग कहा जा सकता है।
वैटिक विश्व में और इस्लामी
वैदिक विश्व मे और इस्लामी दुनिया में भी अहिंसात्मक हिंसा पर विजय पाने के लिए जितना कष्ट सहना पडे प्रवृत्ति की अनुशसा की गई है। इन सभी मान्यताओं मे वह सब सहा जाए । इंमी सिद्धान्त के आधार पर तपस्या मनुष्य गति की श्रेष्ठता सर्वोपरि है। यह धारणा है भी का विकास हुआ है। इन्द्रिय और मन को जीते बिना कोई ठीक । इसीलिए यहां मनुष्य हित को मर्वोपरि ममझा जाता अहिंमा जीवन मे नही आ मकती। इनकी विजय के लिए है। मनुष्य हित में यदि तिर्यचादिक गतियों के जीवों का वाद्य वस्तुओ, विषयो का त्याग आवश्यक है।
घात होता है तो यहा प्राय. उसे करने की स्वीकृति दी जैन धर्म में इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए अपरि- जाती है। इसके विपरीत जैन धर्म में स्पष्ट धारणा है कि ग्रह वाद का प्रवर्तन किया गया है। परिग्रह के साधारणत मनुष्य गति अन्य सभी गतियो की तुलना में नि:स्मन्देह अर्थ है संग्रह करना । जैन धर्म समता पर बल देता है श्रेष्ठ है नथापि मनुष्य की सुख-सुविधा हेतु यहा अन्य जीव ममता पर नही । पर-पदार्थ के प्रति जो ममत्व भाव उत्पन्न धारियो का घात करने की अनुमति और स्वीकृति कदापि होता है उससे ही सग्रह की भावना उत्पन्न होती है। ममता नही दी गई है। विचार कर देखे तो स्पष्ट हो जाता है कि का मूलाधार अज्ञानता है। अज्ञानी स्व-पर भेद से किसी जीव चाहे किसी भी श्रेणी का हो, मलीन हो, दीन हो वस्तु का सही-सही मूल्याकन नहीं करता। अहिंसक कभी अथवा कुलीन और प्रवीण हो, कष्ट कोई भी भोगना नहीं अज्ञानी नही हो सकता । इमीलिए अहिंसक पेट भरने की चाहता । सभी गतियों के जीव सुख की आकांक्षा रखते बात कहता है, पेटी भरने की नहीं । पेटी भरना ही तो है। जीव घात किए बिना मनुष्य गति को सुख-सुविधा, परिग्रहवादिता है।
प्रदान करने का प्रयत्न जैन धर्म मे प्रारम्भ से ही रहा है। मत परिग्रह कर यहां कुछ थिर नहीं है,
यहां स्पष्ट धारणा रही है कि हम स्वय जिएं और दूसरों व्यर्थ है सग्रह, जरूरत चिर नहीं है।
को जीने दें। हो सकी अपनी न दौलत रूप सी भी,
विश्व की अन्य अनेक धार्मिक मान्यताओं द्वारा व्यक्ति मौत से पहिले निजी तन, फिर नही है ।।
उदय और वर्गोदय की व्यवस्था संजोयी गई है जवकि जैन अहिंसक सदा अपरिग्रही होता है। आवश्यकता से धर्म में व्यक्ति ही नही. कोई वर्ग विशेष टी
धर्म में व्यक्ति ही नहीं, कोई वर्ग विशेष ही नहीं अपितु अधिक पदार्थ संग्रह में उसे आसक्ति नही रहती आमक्ति प्राणी मात्र के उन्नयन हेतु सन्मार्ग प्रशस्त किया गया है। वस्तुतः अबोध का परिणाम है। आसक्ति बुराई है । बोध विचार कर देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि यह कितनी होने पर बुराई दुहराई नहीं जाती।
व्यापक और उदात्त भावना है। इसी विराट् भावना के बल आत्मानुशासन में कहा है कि धर्म पवित्र आत्मा मे बूते पर जैन धर्म को विश्व धर्म के उच्चासन पर प्रतिहित ठहरता है। अहिंसा एक धर्म है । व्यवहार की भाषा में वह किया जा सकता है। पवित्र आत्मा मे उद्भूत होती है और निश्चय की भाषा मे -पीली कोठी आगरा रोड, अलीगढ़, पिन २०२००१