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१८, वर्ष ३५, कि १
कान्त
आस्रव द्वार बहुमुखी होता है। कर्म कुल के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है। अनेक+ अंत+आत्मक आस्रव मार्ग को बड़े सावधानी के साथ समझने-समझाने के योग से इस शब्द का सगठन हुआ है। यहा पर अन्त शब्द की आवश्यकना है । पाप और पुण्य की दृष्टि से आस्रव दो से धर्म नामक अर्थ ग्रहण किया गया है। इस प्रकार अनेप्रकार का होता है। इसे ही शुभ और अशुभ कहा गया कान्त शब्द का अर्थ हुआ अनेक धर्म वाला अथवा अनेक है । शुभ कर्मास्रव से प्राणी सुखी और अशुभ कर्म से प्राय गुण वाला । इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु में अनेक दुःखी हुआ करता है। विचार कर देखे तो प्रत्येक प्रकार गुण विद्यमान है। मनुष्य के लिए यह बडा कठिन है कि का कर्म बंधन का कारण है ओर बधन कभी सुखद नही उस वस्तु के समस्त गुणो एव अवस्थाओ का विभिन्न हो सकता। इस प्रकार दुख दूर करना और सुखी होना दृष्टियो से एक साथ वर्णन करे। इसके अतिरिक्त केवल ही प्राणी का उत्कृष्ट प्रयोजन कहा जा सकता है। उमी गुण का या अवस्था का वर्णन उम दृष्टि से किया
लोक अनन्त तत्वों से भरा पड़ा है। जैन धर्म में उन्हे जाना है जिस दृष्टि से जिस गुण के कथन करने की सात भागो मे विभाजित किया गया है। जीवाजीवासवबंध- आवश्यकता उस समय की परिस्थिति के अनुसार प्रतीत सवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम् अर्थात जीव, अजीव, आस्रव, बध, होती है । उस समय वस्तु के अन्य गुणो के वर्णन करने की सवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात ही तत्व होते है । तत्व प्राय उपेक्षा की जाती है । एक पारिभापिक अर्थ रखता है। इसका अर्थ है वम्त का अनेकांत मूलत सिद्धात है और इस सिद्धात की शैली सच्चा स्वरूप । अर्थात् जो वस्तु जैसी है उमका जो भाव है का नाम है स्यावाद । स्यात् वाद शब्दो के योग से स्याद्वाद दरअसल वही तत्व है। इन मान तत्वा को सही-मही शब्द का गठन हुआ है । स्याद् शब्द का अर्थ है कथचित रूप में मानना वस्तुत सम्यक् दर्शन कहलाता है। इन अर्थात् किसी एक दृष्टि से और वाद का अभिप्राय है तत्वो को जानकर स्व-पर भेद बुद्धि को जानना वस्तुत. विचार । इस प्रकार स्यादवाद के कथन से यह बोध होता सम्यक् ज्ञान कहा जाता है । दर्शन अर्थात् सप्त तत्वो के है कि विविक्षित वस्तु का वर्णन उसके किसी एक गुण का प्रति श्रद्धान और भेद विज्ञान पूर्वक उन्हें अपने मे लय किसी एक दृष्टि से है, उसका वर्णन अन्य गुण या अन्य करना ही वस्तुत. सम्यक चारित्र कहलाता है । यह दर्शन, दष्टि की अपेक्षा अन्य प्रकार होता है । लोक में सामान्यतः ज्ञान और चारित्र की त्रिवेणी ही वस्तुत सच्चे मुख मार्ग स्यावाद का अर्थ अन्यथा भी लगा कर मिथ्या धारणा का का प्रवर्तन करती है । यथा---
प्रयत्न किया गया। ऐमी मान्यता धारियो को दृष्टि मे स्यात् सम्यकदर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्ष मार्ग । का अर्थ है शायद । फलस्वरूप स्याद्वाद का अर्थ शायद ऐसा आज के मानवी-समुदाय की मुख्य समस्या है आग्रह- हो, इस प्रकार माना गया है। उनकी दृष्टि में स्याद्वाद वादिता। प्रत्येक व्यक्ति अपनी ममझ मे थेष्ठता अनुभव मदेहबोधक शब्द है। जैन धर्म में इस शब्द का अर्थ इस करता है। बिना सोचे-समझे जब वह अपनी धारणा को प्रकार स्वीकार नहीं किया गया है। यहा तो स्यात् शब्द से दूमरों पर थोपने का दुराग्रह करता है तभी विरोध-तज्जन्य कर्थचिन का अर्थ लेते है अर्थात् विवक्षित वस्तु के किसी सघर्ष का जन्म होता है । संघर्ष का बृहत् सस्करण ही युद्ध एक गुण का किसी एक दृष्टि से वर्णन है। उस गुण का का रूप ग्रहण है । जैन धर्म मे इस विश्व व्यापी समस्या के उस दृष्टि से वर्णन पूर्णत. निश्चयात्मक है, इसमे किसी समाधान हेतु एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विचार पद्धति प्रदान प्रकार का सदेह नहीं है। की है। उसके अनुसार युद्ध शान्ति का उपाय सामने नही विश्व में वैचारिक विविधता आरम्भ से ही रही है। आता अपितु युद्ध के उत्पन्न होने मे भूल कारण और विचार वैविध्य को जब आग्रह के साथ ग्रहण किया जाता आधार का उद्घाटन भी हो जाता है। युद्ध का मूलाधार है तभी सघर्ष को जन्म मिला करता है। आज के विश्वहै आग्रहवादिता। अनेकान्त और स्याद्वाद इस दिशा मे व्यापी मानवी समुदाय में वैचारिक विसंगति व्याप्त है उल्लेखनीय समाधान है।
फलस्वरूप प्रत्येक क्षण युद्ध-संघर्ष की सम्भावना बनी रहती