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विश्व धर्म बनाम जैन धर्म
णमो अरिहताण, णमो सिद्धाण, णमो आइरियाण विभाजित किया गया है-घातिया और अघातिया। जो
णमो उवज्झायाण णमो लाए सव्व साहूण। जीव के गुणो का घात करते है वे वस्तुत कहलाए धातिया सबसे बड़ी बात यह है कि जैन धर्म की मान्यता है कि कर्म । यथा-- प्रत्येक जीवात्मा में ये सभी गुण सदा विद्यमान रहते है। १. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. मोहनीय ४. अन्तराय कर्म-कुल से प्रच्छन्न इन गुगो को उजागर करने का यहा
जो पूर्ण गुण को घात न कर पाए वे अघातिया कर्म विधान है। नाना कर्मों को क्षय करके जीव अपने में कहलाते हैथा प्रतिष्ठित इन गुणो को प्रकट कर सकता है। स्वय इष्ट १ वेदनीय, २ आयु, ३ नाम, ४. गोत्र ।
और परम इष्ट बन सकता है । प्राणी स्वय प्रभु बन सकता घानिया और अघातिया कर्म मिलकर आठ कर्म-भेद है, इस प्रकार की व्यवस्था कदाचिन जैन धर्म में ही उप- प्रचलित है। समार के अनन्त कर्म इन्ही आठ कर्मों में लब्ध है। इस प्रकार प्रत्येक प्राणी अपने ह्रास और विकाम परिगणित किए जा सकते है। इन कर्मो की परिचयात्मक का स्वय कर्ता और भोक्ता है।
सक्षिप्त रेखा निम्न रूपेण प्रस्तुत की जा मकती है। कर्म सिद्धान्त को मान्यता अन्य धर्मों में भी दी है। १ घातिता कर्म---अ.-ज्ञानावरण कर्म --जो आत्मा के वहाँ जीवात्मा प्रत्येक कर्म प्रभु की कृपा से सम्पन्न करता ज्ञान गुण को ढकता है उसे ज्ञानावरण कर्म कहते है ओर किए हुए कर्म-फल भी उसी की कृपा से भोगता है परन्तु जैन धर्म में जीव स्वय करता है, कर्मानुसार निमित्त (ब) दर्शनावरण कर्म-जो आत्मा के दर्शन गुण को स्वत जुटा करते है और कर्म-फल का भोग भी वह स्वय ढकता है उसे दर्शनावरण कर्म कहते है। भोगा करता है । किमी की कृपा का यहा कोई विधान नही (म) मोहनीय कर्म--जिमके उदय मे जीव अपने स्वरूप
को भुलाकर अन्य को अपना समझने लगता है, कर्म शब्द का लौकिक अर्थ तो क्रिया ही है । जीव, मन उमे मोहनीय कर्म कहा गया है। वचन और काय के द्वारा कुछ न कुछ किया करता है, वह
(द) अन्तराय कर्म-जो दान-लाभ आदि में विघ्न सब उसकी क्रिया या कर्म की सजा प्राप्त करता है । मन, डालता है उसे अन्तराय कर्म कहते है। वचन और काय कर्म के ये तीन द्वार होते है। ससारी
२ अघातिया कर्म-(अ) वेदनीय कर्म-जो आत्मा को आत्मा के इन तीन द्वारो की क्रियाओ से प्रतिक्षण सभी
मुख-दुख देता है, उसे वेदनीय कर्म कहते है। आत्म-प्रदेशो में कर्म होते रहत है अनादि काल से जीव का
(ब) आयु कर्म-जो जीव को नर्क, तिर्यच, मनुष्य और कर्म के साथ सम्बन्ध चला आ रहा है। इनका पारस्परिक
देव मे से किसी एक के शरीर मे रोक रखता है, अस्तित्व वस्तुत. सिद्ध है।
उसे आयु कर्म कहा गया है। मूलत. कर्म के दो भेद किए गए है-द्रव्यकर्म और
(स) नाम कर्म-जिससे शरीर और अंगोपाग आदि भावकर्म।
की रचना होती है उसे नाम कर्म कहते है । पुद्गल के कर्म-कुल द्रव्यकर्म कहलाते है। द्रव्यकर्म
(द) गोत्र कर्म-जिससे जीव का उच्च अथवा नीच के निमित्त से जो आत्मा के राग-द्वेष अज्ञान आदि भाव
___ कुल मे पैदा होना होता है उसे गोत्र कर्म कहते है। होते है वे वस्तुतः भाव कर्म कहलाते है। द्रव्य और भाव
आत्मिक गुणो में कर्म का कोई स्थान नहीं है । अज्ञाभद स जो आत्मा को परतत्र करता है, दु.ख देता है तथा
नता से कर्म आत्मगुणो को प्रच्छन्न करता है। आत्मससार चक्र मे चक्रमण कराता है, वह समवेत रूप में कर्म
गणों को प्रभावित करने के लिए कर्मकुल जिस मार्ग को कहलाता है।
अपनाता है उसे आस्रव मार्ग कहा जाता है। आस्रव भी कर्मों का एक कुल होता है। कर्म अनन्तकाल से एक पारिभाषिक शब्द है जिसके अर्थ होते है कर्मों के आने अनन्त है। अनन्तकों को स्थूलरूप से दो भागों में का द्वार । इस प्रकार कर्म-सचार आस्रव कहलाता है।