Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 26
________________ २४, वर्ष ३५, कि०१ अनेकान्त पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने पंचसग्रह नाम का कारण बता ते जीवकाण्ड का संकलन बहुत ही व्यवस्थित, सन्तुलित हुए लिखा है कि "सभवतया टीकाकारों ने अमितगति के और परिपूर्ण है। इसी से दिगम्बर साहित्य में इसका पंचसंग्रह को देखकर और उसके अनुरूप कथन इसमे देख विशिष्ट स्थान है। कर इसे यह नाम दिया है।" कर्मकाण्डगोम्मट अर्थात चामुण्डराय के प्रतिबोधन के निमित्त गोम्मटसार के दूसरे भाग का नाम कर्मकाण्ड है। लिखे जाने के कारण इस ग्रन्थ का नाम 'गोम्मटसार' पड़ा। इसकी गाथा संख्या ६७२ है। इसमें नो अधिकार हैविद्वान् इसका रचना काल वि० सं० १०४० के लगभग १. प्रकृति-समुत्कीर्तन, २. बन्धोदयसत्त्व, ३. सत्त्वस्थानभङ्ग, मानते हैं। ४. त्रिचूलिका, ५. स्थानसमुत्कीर्तन, ६. प्रत्यय, ७. भावविषयवस्तु-जीवकाण्ड चूलिका, ८. त्रिकरणलिका और ६. कर्मस्थिति रचना । गोम्मटसार के दो भाग है-प्रथम जीवकाण्ड और इन नौ अधिकारो मे कर्म की विभिन्न अवस्थाओं का द्वितीय कर्मकाण्ड । जीवकाण्ड की गाथा संख्या के विषय निरूपण किया गया है । मे मतभेद है। कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने जीवकाण्ड की सिद्धान्ताचार्य प० के नाश चन्द्र शास्त्री ने एक महत्त्वपूर्ण लिया जाना चोला बात कर्मकाण्ड के विषय में कही है। इसके गाथा न० २२ और डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने इसकी गाथाओं की संख्या । से ३३ तक की गाथाओ मे कुछ असम्बद्धता या अपूर्णता ७३३ लिखी है। वस्तुत. गाथा सख्या ७३४ ही है। भूत। प्रतीत होती है । मूड बद्री से प्राप्त ताडपत्रीय कर्मकाण्ड का कारण यह है कि जीवकाण्ड के गाधी नाथारग जी. की प्रतियो में इन गायाओ के बीच मे कुछ सूत्र, गद्य मे बबई वाले संस्करण तथा रायचन्द्र शास्त्रमाला, बबई वाले पाए जाते है। मूडबिद्री की प्रति मे पाए जाने वाले इन सस्करणों इन दोनो संस्करणो मे गाथा सख्या ७३४ के स्थान सूत्रो को यथास्थान रख देने से कर्मकाण्ड की गाथा न० पर ७३३ लिखी गई है। क्योकि प्रथम संस्करण में दो २२ से ३३ तक की गाथाओ मे जो असम्बद्धता और गाथाओं पर २४७ न० पड गया है तथा द्वितीय सस्करण अपूर्णता प्रतीत होती है, वह दूर हो जाती है और सब म प्रमादवश १४४ नं० की गाथा छूट गई है। गाथाएँ सुसगत प्रतीत होती है। जैसा कि नाम से व्यक्त है इसमे जीव का कथन है। प० कैलाशचन्द्र जी का एक महत्त्वपूर्ण सुझाव है कि ग्रन्थकार ने जीवकाण्ड की प्रथम गाथा मे "जीवस्स परूपण मूडबिद्री की प्रति में वर्तमान गद्य-सूत्र अवश्य ही कर्मकाण्ड वोच्छ" कह कर यह बात स्पष्ट कर दी है कि इसमे जीव के अग है और वे नेमिचन्द्राचार्य की कृति है। कर्मकाण्ड का प्ररूपण है। जीवकाण्ड की द्वितीय गाथा मे उन बीस की मुद्रित संस्कृत-टीका में उन सूत्रो का सस्कृत रूपान्तर प्ररूपणाओं (अधिकारो) को गिनाया है जिनके द्वारा जीव अक्षरश. पाया जाना भी इस बात की पुष्टि करता है। का कथन इस ग्रन्थ में किया गया है। ये बीस प्ररूपणाएँ उन सूत्रो को यथास्थान रखने से कर्मकाण्ड की त्रुटिपूर्ति हो हैं-गुणस्थान, जीव समास, पर्याप्ति, प्राण, सज्ञा, १४ जाती है।" मार्गणाएँ और उपयोग। टीकाएंयहाँ यह बात जानने योग्य है कि गोम्मटसार एक गोम्मटसार पर संस्कृत मे दो टीकाएँ लिखी गई हैंसग्रह ग्रन्थ है। कर्मकाण्ड की गाथा नं. ६६५ मे आए प्रथम-नेमिचन्द्र द्वारा 'वीर मार्तण्डी टीका' और द्वितीय'गोम्मटसंग्रह सुत्त' नाम से भी यह स्पष्ट है । जीवकाण्ड का 'केशव वर्णीकृत 'केशववर्णीया वृति' संकलन मुख्य रूप से पंचसंग्रह के जीवसमास अधिकार, 'वीरमार्तण्ड' चामुण्डराय की उपाधि थी, अत: तथा षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड, जीवट्ठाण के सत्प्ररूपणा 'वीरमार्तण्डी' का अर्थ हुआ चामुण्डराय द्वारा निर्मित और द्रव्यपरिणामुगम नामक अधिकारो की धवला टीका टीका । यह टीका आजकल उपलब्ध नहीं है, किन्तु इसका के आधार पर किया गया है। उल्लेख दो स्थानो पर प्राप्त होता है-प्रथम, कर्मकाण्ड

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