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उत्तराध्ययन/ ७२
सम्यक्त्व और सम्यदर्शन इन दोनों शब्दों का भिन्न-भिन्न अर्थ किया है।१५५ पर सामान्य रूप से सम्यक्दर्शन और सम्यक्त्व ये दोनों एक ही अर्थ में व्यवहृत होते रहे हैं। सम्यक्त्व यथार्थता का परिचायक है। सम्यक्त्व का एक अर्थ तत्त्व - रुचि भी है । २५६ इस अर्थ में सम्यक्त्व, सत्याभिरुचि या सत्य की अभीप्सा है। सम्यक्त्व मुक्ति का अधिकारपत्र है। आचारांग में सम्यग्दृष्टि का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा —— सम्यकदृष्टि पाप का आचरण नहीं करता । २५७ सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है जो व्यक्ति विज्ञ है, भाग्यवान् है, पराक्रमी है पर यदि उसका दृष्टिकोण असम्यक् है तो उसका दान, तप आदि समस्त पुरुषार्थ फल की आकांक्षा वाला होने से अशुद्ध होता है। २५८ अशुद्ध होने से वह मुक्ति की ओर न ले जाकर बन्धन की ओर ले जाता है। इसके विपरीत सम्यक्दृष्टि वीतरागदृष्टि से सम्पन्न होने के कारण उसका कार्य फल की आकांक्षा से रहित और शुद्ध होता है । २५९ आचार्य शंकर ने भी गीताभाष्य में स्पष्ट शब्दों में सम्यग्दर्शन के महत्त्व को व्यक्त करते हुए लिखा है- सम्यग्दर्शननिष्ठ पुरुष संसार के बीज रूप, अविद्या आदि दोषों का उन्मूलन नहीं कर सके ऐसा कभी सम्भव नहीं है। दूसरे शब्दों मे कहा जाय तो सम्यग्दर्शनयुक्त पुरुष निश्चित रूप से निर्वाण प्राप्त करता है [ २६० अ त् सम्यग्दर्शन होने से राग यानि विषयासक्ति का उच्छेद होता है और राग का उच्छेद होने से मुक्ति होती है।
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सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन आध्यात्मिक जीवन का प्राण है । प्राण-रहित शरीर मुर्दा है, वैसे ही सम्यग्दर्शनरहित साधना भी मुर्दा है वह मुर्दे की तरह त्याज्य है। सम्यग्दर्शन जीवन को एक सही दृष्टि देता है, जिससे जीवन उत्थान की ओर अग्रसर होता है। व्यक्ति की जैसी दृष्टि होगी, वैसे ही उसके जीवन की सृष्टि होगी । इसलिए यथार्थ दृष्टिकोण जीवन-निर्माण की सबसे प्राथमिक आवश्यकता है। प्रस्तुत अध्ययन में उसी यथार्थ दृष्टिकोण को संलक्ष्य में रखकर एकहत्तर प्रश्नोत्तरों के माध्यम से साधाना पद्धति का मौलिक निरूपण किया गया है। ये प्रश्नोत्तर इतने व्यापक हैं कि इनमें प्रायः समग्र जैनाचार समा जाता है।
तप एक विहंगावलोकन
तीसवें अध्ययन में तप का निरूपण है। सामान्य मानवों की यह धारणा है कि जैन परम्परा में ध्यानमार्ग या समाधि मार्ग का निरूपण नहीं है पर उनकी यह धारणा सत्य तथ्य से परे है। जैसे योगपरम्परा में अष्टाङ्गयोग का निरूपण है, वैसे ही जैन परम्परा में द्वादशांग तप का निरूपण है। तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करने पर सम्यक् तप का गीता के ध्यानयोग और बौद्धपरम्परा के समाधिमार्ग में अत्यधिक समानता है।
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तप जीवन का ओज है शक्ति है तपोहीन साधना खोखली है। भारतीय आचारदर्शनों का गहराई से अध्ययन करने पर सूर्य के प्रकाश की भांति यह स्पष्ट होगा कि प्रायः सभी आचार-दर्शनों का जन्म तपस्या की गोद में हुआ है। वे वहीं पले-पुसे और विकसित हुए हैं। अजित-केस कम्बलिन् घोर भौतिकवादी था । गोशालक एकान्त नियतिवादी था । तथापि वे तप साधना में संलग्न रहे। तो फिर अन्य विचार- दर्शनों में तप का महत्त्व हो, इसमें शंका का प्रश्न ही नहीं है। यह सत्य है कि तप के लक्ष्य और स्वरूप के सम्बन्ध में मतैक्य का अभाव रहा है पर सभी परम्पराओं ने अपनी-अपनी दृष्टि से तप की महत्ता स्वीकार की है।
श्री भरतसिंह उपाध्याय ने "बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन" नामक ग्रन्थ में लिखा है— भारतीय संस्कृति में जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उदात्त एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वह सब तपस्या से ही सम्भूत
२५५. विशेषावश्यक भाष्य १८७ / ९०
२५७. "समत्तदंसी न करेइ पावं" आचारांग ३/३/२ २५९. सूत्रकृतांग १/८/२२-२३
२५६. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ५, पृष्ठ २४२५.
२५८. सूत्रकृतांग १/८/२२-२३
२६०. गीता — शांकरभाष्य १८ / १२