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समीक्षात्मक अध्ययन/७१इस त्रिविध साधना का उल्लेख हुआ है। जैसे जैनधर्म में तप का स्वतन्त्र विवेचन होने पर भी उसे सम्यक् चारित्र के अन्तर्भूत माना गया है वैसे ही गीता के ध्यानयोग को कर्मयोग में सम्मिलित कर लिया गया है। इसी प्रकार पश्चिम में भी त्रिविध साधना और साधना-पथ का भी निरूपण किया गया है। स्वयं को जानो (Know thyself ) स्वयं को स्वीकार करो (Accept Thyself) और स्वयं ही बन जाओ (Be Thyself ) ये पाश्चात्य परम्परा में तीन नैतिक आदेश उपलब्ध होते हैं।२५०
प्रस्तुत अध्ययन में कहा है—दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और जिसमें ज्ञान नहीं होता, उसका आचरण सम्यक् नहीं होता। सम्यक् आचरण के अभाव में आसक्ति से मुक्त नहीं बना जाता और विना आसक्तिमुक्त बने मुक्ति नहीं होती। इस दृष्टि से निर्वाण-प्राप्ति का मूल ज्ञान, दर्शन और चारित्र की परिपूर्णता है। कितने ही आचार्य दर्शन को प्राथमिकता देते हैं तो कितने ही आचार्य ज्ञान को। गहराई से चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि दर्शन के विना ज्ञान सम्यक् नहीं होता। आचार्य उमास्वाति ने भी पहले दर्शन और उसके बाद ज्ञान को स्थान दिया है। जब तक दृष्टिकोण यथार्थ न हो तब तक साधना की सही दिशा का भान नहीं होता और उसके विना लक्ष्य तक नहीं पहुंचा जा सकता। सुत्तनिपात में भी बुद्ध कहते हैं—मानव का श्रेष्ठ धन श्रद्धा है ।२५९ श्रद्धा से मानव इस संसार रूप बाढ़ को पार करता है।२५२ श्रद्धावान् व्यक्ति ही प्रज्ञा को प्राप्त करता है।२५३ गीता में भी श्रद्धा को प्रथम स्थान दिया है। गीताकार ने ज्ञान की महिमा और गरिमा का संकीर्तन किया है। "न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते"-कहने के बाद कहा—वह पवित्र ज्ञान उसी को प्राप्त होता है जो श्रद्धावान् है- "श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्" २५४ । सैद्धान्तिक दृष्टि से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति युगपत् होती है, अर्थात् दृष्टि सम्यक् होते ही मिथ्या-ज्ञान सम्यग्ज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। अतएव दोनों का पौर्वापर्य कोई विवाद का विषय नहीं है।
ज्ञान और दर्शन के बाद चारित्र का स्थान है। चारित्र साधनामार्ग में गति प्रदान करता है। इसलिए चारित्र का अपने आप में महत्त्व है। जैन दृष्टि से रत्नत्रय के साकल्य में ही मोक्ष की निष्पत्ति मानी गई है। वैदिक परम्परा में ज्ञाननिष्ठा, कर्मनिष्ठा और भक्तिमार्ग ये तीनों पृथक्-पृथक मोक्ष के साधन माने जाते रहे हैं। इन्हीं मान्यताओं के आधार पर स्वतंत्र सम्प्रदायों का भी उदय हुआ। आचार्य शंकर केवल ज्ञान से और रामानुज केवल भक्ति से मुक्ति को स्वीकार करते हैं। पर जैन दर्शन ने ऐसे किसी एकान्तवाद को स्वीकार नहीं किया है।
प्रस्तुत अध्ययन में चौथी गाथा से लेकर चौदहवीं गाथा तक ज्ञानयोग का प्रतिपादन है। पन्द्रहवीं गाथा से लेकर इकतीसवीं गाथा तक श्रद्धायोग का निरूपण है। बत्तीसवीं गाथा से लेकर चौतीसवीं गाथा तक कर्मयोग का विश्लेषण है। ज्ञान से तत्त्व को जानो, दर्शन से उस पर श्रद्धा करो, चारित्र से आश्रव का निरुंधन करो एवं तप से कर्मों का विशोधन करो! इस तरह इस अध्ययन में चार मार्गों का निरूपण कर उसे आत्मशोधन का प्रशस्त-पथ कहा है। इसी पथ पर चलकर जीव शिवत्व को प्राप्त कर सकता है। कर्ममुक्त हो सकता है।
सम्यक्त्व : विश्लेषण
उनतीसवाँ अध्ययन सम्यक्त्व-पराक्रम है। जो साधक सम्यक्त्व में पराक्रम करते हैं, वे ही सही दिशा की ओर अग्रसर होते हैं। सम्यक्त्व के कारण ही ज्ञान और चारित्र सम्यक बनते हैं। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने
२५०. (क) साइकोलाजी एण्ड मारल्स, पृष्ठ १८९. (ख) देखिए- जैन, बौद्ध और गीता का साधनामार्ग, डा. सागरमल जैन २५१. सुत्तानिपात १०/२
२५२. सुत्तनिपात १०/४ २५३. "सद्दहानो लभते पञ्झं" -सुत्तनिपात १०/६ २५४. गीता १०/३०