Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla Publisher: Agam Prakashan SamitiPage 16
________________ अंगप्रविष्ट श्रत वह है (1) जो गणधर के द्वारा सूत्ररूप में बनाया हुआ हो, (2) जो गणधर द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थकर के द्वारा प्रतिपादित हो, (3) जो शाश्वत सत्यों से संबंधित होने के कारण ध्रव एवं सुदीर्घकालीन हो। इसी अपेक्षा से ऐसा कहा जाता है कि यह द्वादशांगी रूप गणिपिटक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है और कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है / यह था, है, और होमा / यह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। ___ अंगबाह्य श्रुत वह है-(१) जो स्थविरकृत होता है, (2) जो बिना प्रश्न किये ही तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित होता है, (3) जो अध्र व हो अर्थात् सब तीथंकरों के तीर्थ में अवश्य हो, ऐसा नहीं है, जैसे तन्दुलवैचारिक आदि प्रकरण / ___ नंदीसूत्र के टीकाकार प्राचार्य मलयगिरि ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य की व्याख्या करते हुए लिखा है कि-'सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धि-सम्पन्न गणधर रचित मूलभूत सूत्र जो सर्वथा नियत हैं, ऐसे प्राचारांगादि अंगप्रविष्ट धुत हैं। उनके अतिरिक्त अन्य श्रुत स्थविरों द्वारा रचित श्रुतअंगबाह्य श्रत है।' अंगवाह त दो प्रकार का है-आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त / अावश्यकव्यतिरिक्त श्रुत दो प्रकार का है(१) कालिक और (2) उत्कालिक / जो श्रुत रात तथा दिन के प्रथम मौर अन्तिम प्रहर में पढ़ा जाता है वह कालिक' श्रुत है तथा जो काल वेला को बजित कर सब समय पढ़ा जा सकता है, वह उत्कालिक सूत्र है। नन्दीसूत्र में कालिक और उत्कालिक सूत्रों के नामों का निर्देश किया गया है। अंग, उपांग, मूल और छेद आगमों का सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण है-अंग, उपांग, मूल और छेद / नन्दीसूत्र में न उपांग शब्द का प्रयोग है और न ही मूल और छेद का उल्लेख / वहाँ उपांग के अर्थ में अंगबाह्य शब्द पाया है। __ प्राचार्य श्रीचन्द ने, जिनका समय ई. 1112 से पूर्व माना जाता है, सुखबोधा समाचारी की रचना की। उसमें उन्होंने आगम के स्वाध्याय की तपोविधि का वर्णन करते हुए अंगबाह्य के अर्थ में 'उपांग' का प्रयोग किया है। चणि साहित्य में भी उपांग शब्द का प्रयोग हुअा है / मूल और छेद सूत्रों का विभाग कब रूप से नहीं कहा जा सकता / विक्रम संवत् 1334 में निर्मित प्रभावकचरित में सर्वप्रथम अंग, उपांग, मूल और छेद का विभाग मिलता है। फलितार्थ यह है कि उक्त विभाग तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हो चुका था। मूल और छेद सूत्रों की संख्या और नामों के विषय में भी मतैक्य नहीं है। अंग-साहित्य की संख्या के संबंध में श्वेताम्बर और दिगम्बर सब एक मत हैं / सब बारह अंग मानते हैं / किन्तु अंगबाह्य प्रागमों की संख्या में विभिन्न मत हैं / श्वेताम्बर मूर्तिपूजक 45 भागम मानते हैं, स्थानकवासी और तेरापंथी बत्तीस आगम मानते हैं / 11 अंग, 12 उपांग, 6 मूल सूत्र, छह छेद सूत्र और दस पइन्ना-यों पैंतालीस प्रागम श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक समुदाय प्रमाणभूत मानता है। स्थानकवासी पोर तेरापंथ के अनुसार 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल सूत्र, 4 छेद सूत्र, १प्रावश्यक सूत्र यों बत्तीस वर्तमान में प्रमाणभूत माने जाते हैं। जीवाजोवाभिगम-प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र उक्त वर्गीकरण के अनुसार उपांग श्रुत और कालिक सूत्रों 1. गणहर-थेरकयं वा पाएसा मुक्कवागरणपो वा / घव-चलविसेसो वा अंगाणंगेसु णाणत्तं / / -विशेषावश्यक भाष्य मा. 550 [14] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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