Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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जीवाभिगम पर आचार्य श्री अमोलकऋषि जी म० ने आगम-बत्तीसी के साथ हिन्दी अनुवाद किया वह अनुवाद भावानुवाद के रूप में है।
__ इसके पश्चात् स्थानकवासी परम्परा के आचार्य श्री घासीलाल जी म० ने जीवाभिगम पर संस्कृत में अपनी विस्तृत टीका लिखी। इस टीका का हिन्दी और गुजराती में भी अनुवाद प्रकाशित हुआ।
इसके अतिरिक्त जीवाभिगम को सन् १८८३ में मलयगिरि वृत्ति सहित गुजराती विवेचन के साथ रायबहादुर धनपतसिंह ने अहमदाबाद से प्रकाशित किया। देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धारक फण्ड, बम्बई से सन् १९१९ में जीवाभिगम का मलयगिरि वृत्ति सहित प्रकाशन हुआ है। पर हिन्दी में ऐसे प्रकाशन की आवश्यकता चिरकाल से अनुभव की जा रही थी जो अनुवाद सरल-सुगम और मूल विषय को स्पष्ट करने वाला हो। स्वर्गीय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी ने जैन आगम प्रकाशन समिति का निर्माण किया। उस समिति के द्वारा मूर्धन्य मनीषियों के द्वारा आगमों का अनुवाद और विवेचन प्रकाशित हुआ। उसी क्रम में प्रस्तुत जीवाभिगम का भी प्रकाशन हो रहा है। यह अत्यन्त आह्लाद का विषय है कि बहुत ही स्वल्प समय में अनेक मनीषियों के सहयोग के कारण आगम-बत्तीसी का कार्य प्रायः पूर्ण होने जा रहा है।
प्रस्तुत आगम का सम्पादन मेरे सुशिष्य श्री राजेन्द्र मुनि के द्वारा हो रहा है। राजेन्द्र मुनि एक युवा मुनि हैं। इसके पूर्व उन्होंने उत्तराध्ययन सूत्र का भी सुन्दर सम्पादन किया था और अब द्रव्यानुयोग का यह अपूर्व आगम सम्पादन कर अपनी आगमरुचि का परिचय दिया है। अनुवाद और विवेचन मूल आगम के भावों को सुस्पष्ट करने में सक्षम है। प्रस्तुत सम्पादन जन-जन के मन को भाएगा और वे इस आगम का स्वाध्याय कर अपने ज्ञान की अभिवृद्धि करेंगे, ऐसी आशा है।
____ मैं प्रस्तुत आगम पर पूर्व आगमों की प्रस्तावनाओं की तरह विस्तृत प्रस्तावना लिखना चाहता था पर सामाजिक कार्यों में और भीड़ भरे वातावरण में चाहते हुए भी नहीं लिख सका। संक्षिप्त में जो प्रस्तावना दी जा रही है, उससे भी पाठकों को आगम की महत्ता का सहज परिज्ञान हो सकेगा। परण श्रद्धेय महामहिम राष्ट्रसन्त आचार्य सम्राट श्री आनन्दऋषिजी म. की असीम कृपा मुझ पर रही है और परमादरणीय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी म. का हार्दिक आशीर्वाद मेरे साथ है। इन महान पुरुषों की कपा के कारण ही मैं आज कछ भी प्रगति कर सका है। इनकी सदा-सर्वदा कृपा बनी रहे, इनकी निर्मल छत्र-छाया में हम अपना आध्यात्मिक समुत्कर्ष करते रहें, यही मंगल-मनीषा।
मन्दसौर, दिनांक १०-३-८९
-उपाचार्य देवेन्द्र मुनि
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