Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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विक्रिया करने की शक्ति होने पर भी वे विक्रिया नहीं करते, देवों में संहनन का अभाव है, केवल शुभ पुद्गलों का परिणमन होता है। देवों में समचतुरस्त्र संस्थान है। वैमानिक देवों के अवधिज्ञान की भिन्न भिन्न अवधि, भिन्न भिन्न समुद्घात और भिन्न भिन्न वर्ण- गंध, रस और स्पर्श होते हैं। इन देवों में क्षुधा पिपासा के वेदन का अभाव, भिन्न प्रकार की वैक्रिय शक्ति, सातावेदनीय, वेशभूषा, कामभोग, भिन्न भिन्न गति का वर्णन किया गया है।
भिन्न
तदनन्तर नैरयिक - तिर्यंच - मनुष्य और देवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति तथा जघन्य और उत्कृष्ट संचिट्ठाणा काल, जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एवं उनका अल्पबहुत्व बताया गया है।
इस प्रकार इस तृतीय प्रतिपत्ति में चार प्रकार के संसारी जीवों को लेकर विस्तृत विवेचन किया गया है। चतुर्थ प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में सांसारिक जीवों के पांच प्रकार बताये गये हैं- एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय । इनके भेद-प्रभेद, जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति संस्थितिकाल और अल्पबहुत्व बताये गये 1
पंचम प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में सांसारिक जीवों को छब विभागों में विभक्त किया गया है - पृथ्वीकाय यावत् त्रकाय । इसके भेद - प्रभेद, स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व बताये गये हैं। इसमें निगोद का वर्णन स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्प- बहुत्व प्रतिपादित हैं ।
षष्ठ प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में सांसारिक जीव सात प्रकार के कहे गये हैं-नैरयिक, तिर्यंच, तिर्यंचनी, मानुषी, देव और देवी । इनकी स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व बताये गये हैं ।
मनुष्य,
सप्तम प्रतिपत्ति- इसमें आठ प्रकार के संसारी जीव बताये गये हैं। प्रथम समय नैरयिक, अप्रथम समय नैरयिक, प्रथम समय तिर्यंच, अप्रथम समय तिर्यंच, प्रथम समय मनुष्य, अप्रथम समय मनुष्य, प्रथम समय देव और अप्रथम समय देव । इन आठों प्रकार के संसारी जीवों की स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्प - बहुत्व प्रतिपादित किया है।
अष्टम प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में संसारवर्ती जीवों के नौ प्रकार बताये हैं- पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक द्वीन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय । इन नौ की स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का विवेचन है। नौवीं प्रतिपत्ति- इस प्रतिपत्ति में संसारवर्ती जीवों के दस भेद प्रतिपादित किये हैं-प्रथम समय एकेन्द्रिय से लेकर प्रथम समय पंचेन्द्रिय तक ५ और अप्रथम समय एकेन्द्रिय से लेकर अप्रथम समय पंचेन्द्रिय तक पांच । दोनों मिलकर दस प्रकार हुए। इन जीवों की स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है।
तदनन्तर इस प्रतिपत्ति में जीवों के सिद्ध-असिद्ध सेन्द्रिय- अनिन्द्रिय, ज्ञानी- अज्ञानी, आहारक- अनाहारक, भाषक - अभाषक, सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि, परित्त अपरित्त, पर्याप्तक अपर्याप्तक, सूक्ष्म- बादर, संज्ञी - असंज्ञी, भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक रूप से भेदों का विधान किया गया है तथा योग, वेद दर्शन, संयत, असंयत, कषाय, ज्ञान, शरीर, काय, लेश्या, योनि इन्द्रिय आदि की अपेक्षा से वर्णन किया गया है।
उपसंहार - इस प्रकार प्रस्तुत आगम में जीव और अजीव का अभिगम है। दो विभागों में इनका निरूपण किया गया है। प्रथम विभाग में अजीव का और संसारी जीवों का निरूपण है तो दूसरे विभाग में संसारी और सिद्ध दोनों का समावेश हो जाय, इस प्रकार भेद निरूपण है।
प्रस्तुत आगम में द्वीप और सागरों का विस्तार से वर्णन है।
प्रसंगोपात्त, इसमें विविध लौकिक और सामाजिक, भौगोलिक और खगोल संबंधी जानकारियां भी
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