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१३६. वायुकायिक जीवों के दो प्रकार है- परिणत और अपरिणत । १३७. वनस्पतिकायिक जीवों के दो प्रकार हैं- परिणत और अपरिणत ।
123. Prithvikayik jiva (earth-bodied beings) are of two kinds— sukshma (minute) and baadar (gross). 124. Apkayik jiva (water-bodied beings) are of two kinds-sukshma and baadar. 125. Tejaskayik jiva (fire-bodied beings) are of two kinds-sukshma and baadar. 126. Vayukayik jiva (air-bodied beings) are of two kinds-sukshma and baadar. 127. Vanaspatikayik jiva (plant-bodied beings) are of two kinds— sukshma and baadar.
(in other context) 128. Prithvikayik jiva (earth-bodied beings) are of two kinds-paryaptak (fully developed) and aparyaptak (underdeveloped). 129. Apkayik jiva (water-bodied beings) are of two kinds-paryaptak and aparyaptak. 130. Tejaskayik jiva (fire-bodied beings) are of two kinds-paryaptak and aparyaptak. 131. Vayukayik jiva (air-bodied beings) are of two kinds-paryaptak and aparyaptak. 132. Vanaspatikayik jiva (plant-bodied beings) are of two kinds paryaptak and aparyaptak.
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133. Prithvikayik jiva (earth-bodied beings) are of two kinds-parinat (transformed or turned lifeless by means of a weapon) and aparinat (nontransformed or live). 134. Apkayik jiva (water-bodied beings) are of two kinds-parinat and aparinat. 135. Tejaskayik jiva (fire-bodied beings) are of two kinds-parinat and aparinat. 136. Vayukayik jiva (air-bodied beings) are of two kinds-parinat and aparinat. 137. Vanaspatikayik jiva (plant-bodied beings) are of two kinds-parinat and aparinat.
विवेचन - इन पन्द्रह सूत्रों में पाँच स्थावरों के सूक्ष्म और बादर, पर्याप्तक- अपर्याप्तक, परिणतअपरिणत, गति प्राप्त स्थिति प्राप्त तथा अनन्तरावगाढ़ - परम्परावगाढ़-इस प्रकार दो-दो भेद बताये हैं ।
यहाँ पर सूक्ष्म और बादर का अर्थ अपेक्षा भेद से छोटा या बड़ा बताना नहीं है, किन्तु कर्मशास्त्र की दृष्टि से जिनके सूक्ष्म नामकर्म का उदय हो, उन्हें सूक्ष्म और जिनके बादर नामकर्म का उदय हो, उन्हें बादर जानना चाहिए। बादर जीव, पृथ्वी, जल, वनस्पति आदि के आधार से लोक के एक भाग में रहते हैं, किन्तु सूक्ष्म जीव बिना किसी आधार के ही समूचे लोक में व्याप्त हैं।
प्रत्येक जीव अगले नवीन भव में उत्पन्न होने के साथ अपने शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, जिससे उसके शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा आदि का निर्माण होता है। उन पुद्गलों को ग्रहण करने की शक्ति अन्तर्मुहूर्त्त में प्राप्त हो जाती है। ऐसी शक्ति से सम्पन्न जीवों को पर्याप्तक और जब तक उस शक्ति की पूर्ण प्राप्ति नहीं होती है, तब तक उन्हें अपर्याप्तक कहा जाता है। इन सूत्रों में वर्णित परिणत और अपरिणत का अभिप्राय निर्जीव तथा सजीव से है।
द्वितीय स्थान
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