Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 611
________________ ४२०. चत्तारि परिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-धम्म णाममेगे जहति णो गणसंठिति, गणसंठिति ॥ णाममेगे जहति णो धम्म, एगे धम्मवि जहति गणसंठितिवि, एगे णो धम्मं जहति णो गणसंठिति।। ४२०. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) कोई पुरुष धर्म (संयम धर्म) का त्याग कर देता है, किन्तु म E गण का निवास और मर्यादा नहीं छोड़ता; (२) कोई गण की मर्यादा छोड़ देता है, किन्तु धर्म का त्याग म नहीं करता; (३) कोई धर्म और गण की मर्यादा, दोनों का त्याग कर देता है; और (४) कोई न धर्म को छोड़ता है और न गण की मर्यादा को। 420. Purush (men) are of four kinds-(1) some man abandons the fi dharma (ascetic discipline) but does not abandon his organizational abode and codes, (2) some man abandons his organizational abode and codes but does not abandon the dharma (ascetic discipline), (3) some man abandons the dharma (ascetic discipline) as well as his organizational abode and codes, and (4) some man abandons neither the dharma (ascetic discipline) nor his organizational abode and codes म ४२१. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा-पियधम्मे णाममेगे णो दढधम्मे, दढधम्मे णाममेगे णो पियधम्मे, एगे पियधम्मेवि दढधम्मेवि, एगे णो पियधम्मे णो दढधम्मे। म ४२१. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-(१) प्रियधर्मा, न दृढ़धर्मा-किसी को धर्म तो प्रिय होता है, . किन्तु वह धर्म में दृढ़ नहीं रहता (नियम आदि का पालन नहीं कर सकता); (२) कोई धर्म के पालन में 卐 दृढ़ होता है, किन्तु अन्तरंग से उसे वह धर्म प्रिय नहीं होता (जो प्रतिज्ञा स्वीकार कर ली उसे नहीं ॥ + छोड़ते, किन्तु धर्म के प्रति आस्था नहीं रहती); (३) किसी को धर्म प्रिय भी होता है और उसके पालन , में भी दृढ़ होता है; तथा (४) किसी को न धर्म प्रिय होता है और न उसके पालन में ही दृढ़ होता है। 421. Purush (men) are of four kinds-(1) some man is priyadharma (loves his religion) but not dridhadharma (not steadfast in observing codes), (2) some man is dridhadharma but not priyadharma (although he does not break the vows he has taken but he lacks faith), (3) some man is priyadharma as well as dridhadharma and (4) some man is neither priyadharma nor dridhadharma. आचार्य-पद ACHARYA-PAD (SEGMENT OF PRECEPTOR) ४२२. चत्तारि आयरिया पण्णत्ता, तं जहा-पब्वावणायरिए णाममेगे णो उवट्ठावणायरिए, उवट्ठावणायरिए णाममेगे णो पव्वावणायरिए, एगे पव्वावणायरिएवि उवट्ठावणायरिएवि, एगे णो पव्वावणायरिए णो उवट्ठावणायरिए धम्मायरिए। ४२२. आचार्य चार प्रकार के होते हैं-(१) प्रव्राजनाचार्य, न उपस्थापनाचार्य-कोई आचार्य प्रव्रज्या 9 (दीक्षा) देते हैं, किन्तु उपस्थापना (महाव्रतों की आरोपणा) नहीं कराते; (२) कोई आचार्य उपस्थापना है चतुर्थ स्थान (525) Fourth Sthaan Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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