Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 636
________________ फफफफफफफफफफ 29559595955 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 59595 5 55 52 卐 If I do not rightly endure abhyupagamiki (voluntary) and aupakramiki (natural) afflictions, if I am not forgiving and do not endure the pain with patience, what will happen to me? I will exclusively acquire demeritorious karmas. If I rightly endure abhyupagamiki (voluntary) and aupakramiki (natural) afflictions, if I am forgiving and endure the pain with patience, what will happen to me? I will exclusively shed karmas. This is his fourth bed of happiness. विवेचन - दुःखशय्या का अर्थ है, दुःख की अवस्था । कठिन ऊँची-नीची शय्या पर सोने से जि प्रकार नींद नहीं आती, मन में बेचैनी बढ़ती है, तनाव बढ़ता है। उसी प्रकार संयम जीवन से उद्वेलित एवं दुःखी होकर संतप्त रहने को यहाँ दुःखशय्या कहा है। जिस प्रकार मन की संशयग्रस्तता, भोगों की तरफ लुब्धता और त्यागे हुए शारीरिक सुखों की मिथ्या अभिलाषा करते रहना, पुरानी स्मृतियों में झूलते रहना दुःखशय्या है। उसी प्रकार सुखशय्या में भी निम्न बातें मुख्य हैं - मन को श्रद्धा में स्थिर रखना, जो प्राप्त हुआ, उसी में सन्तोष करना, सांसारिक सुखों में आसक्त नहीं होना और कष्ट सहिष्णु बनना । अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना । इसी का नाम है। सुखशय्या । मन की अशान्त व चंचल अवस्था दुःखशय्या है और शान्त व स्थिर अवस्था सुखशय्या है। पारिवारिक शब्द - संबाधन - शरीर की मालिश करना, परिमर्दन - बेसन, तेल मिश्रित पीठी से मर्दन करना। गात्राभ्यंग - सुगंधित व पुष्टिकारक तेल से शरीर की मालिश करना । गात्रोत्क्षालन - वस्त्र आदि से शरीर को रगड़कर शीतल या उष्ण जल से स्नान करना । शंकित-निर्ग्रन्थ-प्रवचन के सम्बन्ध में शंकाशील रहना । कांक्षित - निर्ग्रन्थ-प्रवचन को स्वीकार कर फिर किसी अन्य दर्शन की आकांक्षा करना। इससे स्वीकृत साधना मार्ग के प्रति अस्थिरता आती है । विचिकित्सित-निर्ग्रन्थ-प्रवचन को स्वीकार कर किसी भी प्रकार की ग्लानि अनुभव करना अथवा फल के विषय में संदेह करना । भेद - समापन्न होना - जप-तप आदि की निरन्तर चलने वाली साधना का क्रम टूट जाना या दुविधाग्रस्त हो जाना। कलुष - समापन - साधना में निरुत्साहित या निराश होकर मन को मलिन करना । उदार तपःकर्म - आशंसा - प्रशंसा आदि की अपेक्षा न करके निदान आदि से मुक्त तपस्या । कल्याण तपःकर्म-आत्मा को पापों से मुक्त कर मंगल करने वाली तपस्या । स्थानांगसूत्र (१) Jain Education International (550) For Private & Personal Use Only Sthaananga Sutra (1) 5! www.jainelibrary.org

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