Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 620
________________ When in religious contemplation, some shramanopasaks have feelings of love for ascetics but during mundane activities they are bitter towards ascetics. The shramanopasaks having this kind of mixed feelings for ascetics have been compared with a brother. The shramanopasaks having fondness for ascetics for some reason on some occasion and aversion for some reason on another occasion have been compared with a friend. The shramanopasaks for namesake who have neither a liking nor devotion for ascetics and who indulge in fault-finding with jealousy and aversion have been compared with a co-wife. ___ ४३१. चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा-अद्दागसमाणे पडामसमाणे, खाणुसमाणे, खरकंटयसमाणे। ___४३१. श्रमणोपासक (अन्य प्रकार से) चार प्रकार के होते हैं-(१) आदर्श (दर्पण) समान, (२) पताका समान, (३) स्थाणु समान, (४) खरकण्टक समान। 431. Also, shramanopasaks are of four kinds—(1) like aadarsh (mirror), (2) like pataka (flag), (3) like sthanu (tree-stump), and (4) like khar-kantak (thorn). विवेचन-इस सूत्र में स्वभाव के आधार पर उपमा देकर श्रावकों के चार भेद बताये हैं जो श्रमणोपासक आदर्श (दर्पण) के समान निर्मल चित्त होता है, वह साधु जनों के द्वारा प्रतिपादित शास्त्र ज्ञान को यथार्थ रूप में ग्रहण करता है। जो श्रमणोपासक पताका (ध्वजा) के समान अस्थिर चित्त व चंचल विचार वाला होता है, वह जैसी 卐 देशना या प्रवचन सुनता है, उसी से प्रेरित होकर उधर ही झुक जाता है। किसी एक निश्चित तत्त्व पर स्थिर नहीं रह पाता। म जो श्रमणोपासक स्थाणु (सूखे वृक्ष का ढूँठ अथवा खूटा) के समान उदंड स्वभाव का होता है तथा ॐ जो समझाये जाने पर भी अपने कदाग्रह को नहीं छोड़ता है अथवा स्थाणु खूटे के समान जो किसी एक पक्ष से बँधा रहता है। ____ जो श्रमणोपासक महाकदाग्रही होता है उसको समझाने के लिए यदि कोई सन्त पुरुष प्रयत्न करता : है है तो वह तीक्ष्ण दुर्वचन रूप कण्टकों से उसे भी बींध डालता है, ऐसे पुरुष को खरकण्टक-समान कहा म जाता है। ॐ इस प्रकार चित्त की निर्मलता, अस्थिरता, जड़ता और कलुषता की अपेक्षा से चार भेद होते हैं। -नागनानागाजा स्थानांगसूत्र (१) (594) Sthaananga Sutra (1) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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