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सूत्रम्
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॥४८॥
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अथवा जेनावडे वस्तु तत्त्व यथावस्थित देखाडाय (कहेवाय) ते दर्शन एटले उपदेश छे, अर्थात् महावीर (वर्धमान) स्वा-2 कहेलुं छे ते हुँ कहं ; पण स्वबुद्धिथी नथी कहेतो, ते सर्वदर्शी पश्यक केवा छे. के जेनुं आ दर्शन छे ते कहे छे,
'उबरय' विगेरे-जेनुं द्रव्य भावथी (सर्व जोबोने दुःख देवारुप) शस्त्र बने प्रकारे दूर थयुं छे, अथवा शस्त्रथी पोते दूर र के, अहीं भावशसमा अरांयम अथवा कपायो जाणवा, तेनाथी पोते दूर छे. तेनो भावार्थ आ छे के:
तीर्थकरने पण कपायने वम्या सिवाय निरायण बधा पदार्थने देखनारं परम (केवळ) ज्ञान प्राप्त थतुं नथी, तेना अभावमा मोक्ष सुखनो अभाव छे, एथी बीजो पण मोक्ष वांछक साधु जे तेनो उपदेश माने छे अने तेना मार्ग चाले छे तेणे पण कपायर्नु चमन करबु, शसने उपरमर्नु कार्य बतावा बीजापण तीर्थकरनां विशेपण बतावे छे. 'पलियतकरस्स' एटले वधां कर्मनो अथवा संसा-2 रनो अंत लाववानो जे यत्न दरे ते पर्यंतकर छे, तेनुं आ दर्शन छे.
हवे जेम तीर्थकरे संयमने विघ्न करनार कषाय शस्त्रने दूर करी संसारनो अंत कर्यो तेम चीजो पण साधु जे तेनुं कहेलं करनारोल सू, होय ते पण करे, तेवू बताचे छे.
'आयाण' विगेरे जेनावडे आठ कर्म आत्म प्रदेश साथे. एकमेकपणे थाय ते आ दान छे, अथवा हिंसा विगेरे आश्रवद्वार अथवा अढारे पापस्थान छे. 'तेनी स्थितिनुं निमित्त कपायो होवाथी ते आ दान छे. ते कपायोनो वमन करनारो स्वकृत भिद (कर्म भेदनारो) बने छे. अर्थात् पोते (अज्ञानदशामां) पूर्वे जे कर्मों अनेक भवमा एकठां को होय; तेने भेदी नांखे; ते स्वकृतभिद जाणवोः अने जे कर्मोना आदान (वीजरुप)-कषायोने रोके; ते अपूर्वकर्म प्रतिषिद्धमा प्रवेश करनारो छे, अने पोते पोतानां पूर्वकर्मनो ४
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