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आचा०
॥५७३॥
RECASHAISA
कूळ आहारना भोजनथी धृति उपष्टभ विगेरेमां औदारिकशरीर वर्गणाना परमाणुना उपचयथी चय तथा घटवाथी अपचय छे एवा ठं धर्मवालं होवाथी अयापचयिक छे, एथीज विविध परिणामवाळु छे, तेथी ते विपरिणाम धर्मवाळं छे, जो आवी रीते शरीर नाश-8
सूत्रम् वंत छे, तो ते शरीर उपर शुं अनुबन्ध (ममत) होय ? अने कइ रीते मूर्छा होय ? तेथी आ शरीरवडे कुशल (धर्म) अनुष्ठान विना ॥५७३॥ बीजी कोइ पण रीते सफलता नथी; ते कहे छे:
पासह आ रुपसंधि (योग्य अवसर) ने जुओ ! के नाशवंत धर्मथी घेरायलं आ औदारिक शरीर छे, तेमां पांचे इन्द्रियोनी *संपूर्ण शक्तिना लाभनो अवसर छे, अने ते देखीने जुदा जुदा रोगोथी उत्पन्न थयेला स्पर्शोना दुःखनो उत्तम साधु सहन करे, आ 5 प्रमाणे (हृदयचक्षुथी) देखनारने शुं थाये, ते कहे छे:__ समुप्पेह माणस इक्काययणरयस्स इह विप्प मुक्कस्स नस्थि मग्गे विरयस्स तिबेमि (सू० १४८)
सारी रीते देखाताने आ भेदुर धर्मवाळ शरीर छे, ए, विचारतां तेने मार्ग नथी. अर्थात् चार गतिमा भ्रमण नथी. ते कहे 8. छे. एटले आ आत्मने बधा पापारंभोथी मर्यादामा लेवाय-(कबजे रखाय) अथवा कुशल (धर्म) अनुष्ठानमा उद्यमवाळो कराय, तो ते आयतन कहेवाय अने ते ज्ञानदर्शन चारित्र ए त्रणमा एक रुपे होय तो ते एकायतन छे, अने तेमां रमणता करे तो आत्मा अकायतनरत छे, तेवा निस्पृही ज्ञानी मुनि 'इह' आ शरीर अथवा आ जन्ममा विविध उत्तम भावनाभोवडे शरीरना अनुबन्धथी मुकाय, ते विषमुक्त छे, तेने नरकतिर्यंच मनुष्य गतिमा भ्रमण नथी, तेमज वर्तमानकाळ बताववाथी' भविष्यमा पण भ्रमण नथी
ॐडनाव