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सुत्रम
॥७६२॥
15 ए पांच मेळवतां चार प्रकारनो उपधि छे. आ बार प्रकारनी उपधि धारण करनारने आवो विचार न थाय, के मने आ ठन्डी| आचा०
रुतुमां त्रण वस्त्रोथी ठन्ड दूर थती नथी, माटे चो) वस्त्र हुँ याची लावू. आम अध्यवसायनो निषेध करवाथी याचवू तो दरथीज
काढी नाख्यु. जो त्रण कल्प न होय, अने ठन्डी रुतु आवी पहोंची, तो आ जिन कल्पी विगेरे मुनि यथा एपणीय निर्दोष वस्त्रोनी ॥७६२॥ याचन करे. उत्कर्षण अपकर्षण रहित अपरि कर्मवाळां याचे तेमां [१] उद्दिछ, [२] पहे, (३) अंतर, [४] उज्झियधम्मा ए चार
वस्त्रनी एपणा छे, तेमां पाछली वेनो अग्रह छे, बाकीनी चे लेवाय छे, तेमां कोइपण एकनो अभिग्रह होय छे..याचना करतां शुद्ध वस्रो मळे, तो ले अने जेवां लीधां तेवांज पहेरे, पण, तेने उत्कर्षण के धोवु विगेरे परिकर्म न करे तेज बतावे छे. अचित्त जळ वढे पण न धुए स्थविर कल्पीने तो वर्षाद आव्या पहेला अथवा मंदवाडमां अचित्त पाणीथी यतनाथी धोवानी अनुज्ञा (संमति) छे, पण जिनकल्पीने तेम धोवु न कल्पे, तेम प्रथम धोइने पछी रंगेलां कपडां होय ते पण न पहेरे, तथा वीजा गामे जतां वस्त्र संताड्या विना चाले, अर्थात् अंत प्रांत (तदन सादा जीर्ण जेवां) वस्त्र धारे; के तेने चोरावाना डरथी ढांको राखवां न पडे तेथीज जिनकल्पी मुनि अवम चेलिक छे; तेने चेल (वस्त्र) प्रमाणथी तथा मूळथी अवम [ओछी कीमतर्नु] होय; तेथी अवम चेलिक छे
('ख' अवधारणना अर्थमां छे,) आ प्रमाणे वस्त्रधारी जिनकल्पी मुनिने विकल्पवाळी अथवा बार प्रकारनी ओघ उपधिवाळी सामग्नी A होय छे. पण बीजी उपधि न होय; अने ठन्ड दुर थतां ते वस्रो पण त्यजी देवानां छे, ते बतावे छे.
अह पुण एवं जाणिज्जा-उवाइकंते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिट्ट
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