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आचा०
॥९६८॥
SERASACAR
आवेथी केटलाक श्रावको छळ करे छे, अने कहे के (प्राभृतिकानी पेठे'माभृतिक वसति होय तेनो अर्थ आ छे के, दानने माटे 81 कल्पेली राखेल छे.) वसति तेवी वसति पूर्व साधुओने वतावेली होय, के तमे ज्यारे आवो त्यारे अहिं उतरजो, ते उत्क्षिप्त पूर्वा सूत्रमू वसति छे, तथा एम कहे के अमे पूर्वे आ मारे रहेवा माटे बनावी छे, ते निक्षिप्त प्रपूर्वा छे, तथा "परिभाइ यपुत्व" ते अमे आ वसति पहेलांथो अभारा भत्रिजा विगेरे माटे कल्पेली छे, तथा वीजा गृहस्थोए पण आ रहेवान मकान वापर्यु छे, तथा ते
H९६८॥ गृहस्थ कहे छे के अमे एने प्रथमथी पाडी नांखवा राखेल छे, जो तमारे आ उपयोगमा न आवे तो अमे एने पाडी नाखीशुं, आ प्रमाणे भक्तिथी कोइ गृहस्थ छलना करे तो साधुए ठगवानुं नहि; पण दोपोने दूर करवा प्रयत्न करवो.
H०-आ प्रमाणे छलनाना संभवमां पण यथावस्थित वसतिना गुण दोपो गृहस्थे पूछतां साधु कहे तो शुं सम्यकज प्रकट करशे? अथवा एवं प्रकट करतो साधु शुं सम्यक् प्रकट कहेनारो थशे? आचार्य कहे हा! ( हंत! अव्यय शिष्यना आमंत्रणमा छे ) ते सम्यकज कहेनारो थाय छे. हवे तेवा कार्यना वशथी चरक कार्पटिक विगेरे साथे उतरवु पडे तो तेनी विधि कई छे.
से भिक्खू वा० से जं.पुण उवस्सयं जाणिज्जा खुड्डियाआ खुड्ड दुवारियाओ निययाभो संनिरुद्धाओ भवन्ति, तहप्पगा० उचस्सए राओ वा वियाले वा निक्खममाणे वा प० पुरा हत्थेण वा पच्छ। पाएण वा तओ संजयामेव निक्खमिज्ज वा २, केवली व्या आयाणमेयं, जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा छत्तए वा मत्तए दंडए वा लडिया वा भिसिया वा नालिया वा चेल वा चिलिमिली वा चम्मए वा चम्मकोसए वा चम्मछेयणए वा दुबद्धे दुनिक्खित्ते अणिकंपे चलाचले भिक्खु य राओ वा वियाले वा निक्खममाणे-वा २ पयलिज्ज वा २; से तत्थ पयलमाणे वा० हत्थं वा० लूसिज्ज वा ४ जाच
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