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आचा०
सूत्रम
॥६२३॥
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आ आत्मा अछेद्य अभेद्य अविकारी नित्य तथा हमेशां गमन करनार स्थाणु तथा अचल अने सनातन (पुराणो) छे. (विगेरे तेमनां वचनो छे) ते प्राणीने हणवा विगेरेमा प्रवर्तनाराने तेना निषेध माटे कहे छे. ,
तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतवंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयवंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परियावेयव्वंति मन्नसि, एवं जं परिचित्तव्वंति मन्नसि, जं उद्दवेयंति मन्नसि, अंजू चेयपडिबुद्धजीवी, तम्हा न हंता नवि घायए, अणुसंवेय
णमप्पाणेणं जं हंतव्वं नाभिपत्थए (सू० १६४) . तमे जे आत्माने हणवा पणे विचार्यो ते तुज छे, ( नाम शब्द संभावना माटे छे, ) जेम तमे माथु हाथ पग पासां पीठ पेटवाला छो, तेम आ पण छे. के जेने तमे दृणवा योग्य मानो छो, जेम तमने कोइ मारवा आवे तो ते देखीने तमने दुःख थाय छे, तेवी रीते बधाने छे, तेने दुःख उत्पन्न करवाथी पाप बंधाय छे, तेनो भावार्थ आ छे, के अहींयां अंतर आत्मा जे आकाश जेवो
छे तेनी हिंसा मारवा वडे नथी पण शरीर आत्मानी हिंसा छे, कारण के ज्यां कइ पण आधार रुप पोतानुं शरीर छे, तेने सर्वथा से दूर करवू तेज हिंसा छे, एवं जैनो माने छे. का छे केः
पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बल च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः ॥
प्रवास