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॥६४५॥
सूत्रम् ॥६४५॥
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&ा तृष्णानी जड दूर थाय माटे ते ज्ञान अनुपम छे] प्र०-तेओ कोने-धर्म कहे छे ? उ०-ते तीर्थङ्कर गणधर विगेरे यथावस्थित भावो
(पदार्थो)-ने धर्मचरण माटे योग्यरीते जे पुरुषो उठेला होय, तेमने कहे छे, अथवा द्रव्यथी शरीरवडे, अने भावथी ज्ञान विगेरेना 5 उत्सुक बनी विनय सहित (उभा या होय) तेमने धर्म कहे छे.
समोसरणनो विनय समोसरणमां स्त्रीओ वन्ने प्रकारे उभी थइने विनय पूर्वक सांभळे छे, अने पुरुषो उभा थइने अथवा बेठा रहीने पण सांभळे पण भावथी उत्सुक होय; तेमज वीजा उठेलां जीवो, तथा देवता अने तीर्यच विगेरेने धर्म संभळावे छे. एटलंज नहि पण जेओ भाव विना फक्त कौतुक विगेरेथी आवी सांभळे, तेमने मण धर्म कहे छे, भावथी उठेलानुं विशेषथी कहे छे. '
मन वचन कायाने जेमणे कवजे लीधां छे, एटले मन वचन कायाथी जीवोने दुःख देवारुप जे दंड छे, ते दूर करवाथी ते निक्षिप्त दंडवाळा संयम पाळनारा छे. तथा तप संयममां उद्यम करवाथी समाहित (शांत) अंतःकरणवाळा छे, तेमने जिनेश्वर विशेषथी धर्म कहे छे, तेज प्रमाणे प्रकर्पथी जणाय ते प्रज्ञान छे, तेवं ज्ञान धरावनार बुद्धिमानोने आ मनुष्यलोकमां ज्ञानदर्शन चारित्ररुप मुक्ति मार्ग छे ते बतावे छे, आ प्रमाणे समोसरणमां साक्षात् धर्म संभळावतां केटलाक लघुकर्मी जीवो (पूर्ण श्रद्धा थतां)
तेज वखते चारित्र ग्रहण करे छे, पण वीजा तेम चारित्र लेता नथी, ते कहे छे, एटले उपर कह्या प्रमाणे कर्मविवर जेमने मळ्युं ४ तेवा केटलाक भव्यात्माओं जिनेश्वर पासे धर्म सांभळतांज सयम संग्रामनी टोचे पराक्रम बतावे छे, अथवा पर ते इन्द्रियो अथवा
कर्म शत्रुने जीतवा पराक्रमी बने छे, (अपि शब्दनो अर्थ 'च' छे, अने 'च' नो अर्थ वाक्यनो उपन्यास करवा माटे छे) हवे तेथी।
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-लख