Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 10
________________ महाकवि पुष्पदन्त काश्यप-गोत्रीय ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम केशव भट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था। प्रारम्भ में कवि शैव मतावलम्बी थे। उस समय उन्होंने किसी शैव राजा की प्रशंसा में काव्य का प्रणयन भी किया था, वहाँ उनका अपमान हुआ तो वे मान्यखेट चले आये। बाद में किसी जैन मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर उन्होंने जैनधर्म अपना लिया। पुष्पदन्त का जीवन संघर्षों से भरा हुआ था। वे प्रकृति से अक्खड़ और नि:संग थे, निस्पृह थे, भावुक थे, अत्यन्त स्वाभिमानी होने से उनका स्वभाव उग्र और स्पष्टवादी था इसलिए उन्हें बहुत मानसिक तनाव झेलना पड़ा। इनकी विचारधारा थी- 'पहाड़ की गुफा में रहकर घास खा लेना अच्छा परन्तु दुर्जनों के बीच रहना अच्छा नहीं। यह अच्छा है कि आदमी माँ की कोख से जन्म लेते ही मर जाये पर यह अच्छा नहीं कि सवेरे-सवेरे वह किसी दुष्ट राजा का मुख देखे।' 'महापुराण' महाकवि की मूल और मुख्य रचना है जिसे हम अपभ्रंश साहित्य का आकर ग्रन्थ भी कह सकते हैं। इसकी रचना में कवि को लगभग छ: वर्ष का समय लगा जबकि इसके सम्पादन में डॉ. पी.एल. वैद्य को (ई. सन् १९३१ से १९४२) दस वर्ष का समय लगा। पुष्पदन्त ने अपभ्रंश भाषा में जैनों के त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित का काव्यात्मक भाषा में वर्णन कर एक अनुकरणीय कार्य किया है। अपभ्रंश भाषा के स्वरूप, प्रकृति, रचना-प्रक्रिया, देशी शब्द-प्रयोग आदि के विषय में सही विश्लेषण के लिए पुष्पदन्त का महापुराण ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करता है। महापुराण के अतिरिक्त कवि की दो रचनाएँ और हैं १. णायकुमारचरिउ और २. जसहरचरिउ। पुष्पदन्त के आश्रयदाता इसमें सन्देह नहीं कि काव्य मनुष्य की उदात्त चेतना तथा सृजन-शक्ति से आविर्भूत होता है। किन्तु यह कार्य किसी बाह्य उच्च आश्रय के बिना सम्भव नहीं होता है। यह उल्लेखनीय है कि भारतीय कवि को अपने साहित्य-सृजन के लिए किसी न किसी का आश्रय सदैव मिला है। इसलिए भारत में जो महान काव्य लिखे गये वे राजनीति या धर्म के आश्रय या प्रेरणा से लिखे गये। महाकवि पुष्पदन्त को भी यदि मंत्री भरत और मंत्री नन्न का आश्रय न मिलता तो महापुराण आदि की रचना संभव नहीं होती। १. मंत्री भरत पुष्पदन्त के साहित्य में मान्यखेट के राष्ट्रकूटवंशीय राजा कृष्ण तृतीय के तीन नाम मिलते हैंतुडिग, सुह तुंगराय कृष्णराज (शुभतुंगराज कृष्णराज) और वल्लभ नृप। पुष्पदन्त के आश्रयदाता भरत इन्हीं कृष्णराज तृतीय के मंत्री और सेनापति थे। भरत महामात्य वंश में उत्पन्न हुए थे। उनका परिवार एक सम्पन्न परिवार था। उनके पिता का नाम एयण, माता का नाम देवी था, पितामह का नाम अन्नय था। पत्नी का नाम कुंदव्वा था, उनके सात पुत्र थे। मंत्री भरत जैन धर्मावलम्बी थे। भरत ने मात्र जिनमन्दिर बनवाने की अपेक्षा जैन-पुराणों की प्रख्याति के लिए ही अपनी सम्पत्ति का व्यय किया। वे विद्याव्यसनी थे। उनका चरित्र पवित्र था। वे बहुत गुणवान व अत्यन्त उदार थे। उनका यश दशों दिशाओं में फैला हुआ था। पुष्पदन्त अपने स्वाभिमान के कारण राज्य या राजा का आश्रय लेना पसन्द नहीं करते थे किन्तु मन्त्री भरत के गुणानुराग और विद्याप्रेम से परिचित इन्द्रराज और नागैया नाम के दो व्यक्तियों ने उनसे (पुष्पदन्त से) मंत्री भरत के पास चलने का अनुरोध किया और वे सफल हुए। मंत्री भरत महाकवि पुष्पदन्त के स्वभाव से तथा उसके पूर्व जीवन से परिचित थे। इसलिए वे अत्यन्त विनम्रता से कहते हैं-'हे कविवर ! तुम चन्द्रमा के समान यशस्वी हो। तुम भव्यजनों के लिए देवकल्प हो, अत: आदिनाथ ऋषभदेव के चरित को काव्यनिबद्ध करने के लिए अपने कन्धों का सहारा दो! वाणी कितनी ही अलंकृत, सुन्दर और गम्भीर हो, वह तभी सार्थक होती है जब उसमें कामदेव का संहार करनेवाले प्रथम जिनदेव ऋषभदेव के चरित का वर्णन किया जाये।' कवि उत्तर देते हैं- 'यह कलियुग पापों से मलिन और विपरीत है। निर्दय, निर्गुण और अन्यायकारी इसमें जो-जो भी दिखाई देता है वह अन्यायजनक है। सूखे हुए वन की तरह फलहीन और नीरस । जगत के लोगों का राग (स्नेह) सन्ध्याकाल के राग के समान है। मेरा मन धन में प्रवृत्त नहीं होता। भीतर अतिशय उद्वेग बढ़ रहा है। एक-एक पद की रचना करना भारी पड़ता है। फिर मैं जो कुछ कहूँगा उसमें दोष ढूँढा जायगा; मैं यह नहीं समझ पाता कि यह दुनिया सज्जनों के प्रति खिंची-खिंची क्यों रहती है, उसी तरह कि जिस तरह धनुष पर डोरी खिंची होती है!' इस प्रकार कवि ने पहले तो मंत्री भरत के प्रस्ताव के प्रति अपनी अनिच्छा व्यक्त की. पर बाद में उन्होंने मंत्री भरत के अनुरोध और विनम्र आग्रह पर उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उन्होंने ई. सन् ९५९ में मंत्री भरत के घर में रहकर काव्यरचना शुरू की और 'महापुराण' की रचना की। अपभ्रंश साहित्य की रचना करने से जिस तरह कवि का यश दूर-दूर तक फैला उसी प्रकार भरत की उदारता भी दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गई। ___ मंत्री भरत दुस्थितों के मित्र, दंभरहित, उपकार-भाव का निर्वाह करनेवाले, विद्वानों के कष्टरूपी भयों को दूर करनेवाले, गर्वरहित और भव्य थे। मंत्री भरत विद्या और लक्ष्मी दोनों से युक्त थे। इसी कारण महाकवि मंत्री भरत की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि वाग्देवी सरस्वती से लक्ष्मी सदैव रुष्ट रहती थी और सरस्वती लक्ष्मी से द्वेष रखती थी। परन्तु वे दोनों जब मंत्री भरत के पास आई तो दोनों में प्रगाढ़ प्रेम हो गया। www.jainelibrary.org Jain Education Internationa For Private & Personal use only

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