Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 8
________________ प्रकाशकाय धर्म, साहित्य एवं कला के प्रेमियों के लिए 'आदिपुराण' की सचित्र पाण्डुलिपि का प्रकाशन से बाहुबली पुत्र और सुन्दरी नाम की पुत्री उत्पन्न हुई। ऋषभदेव ने अपने पुत्र-पुत्रियों को अनेक करते हुए अत्यन्त हर्ष का अनुभव हो रहा है। जन-कल्याणकारी विद्याएँ सिखाईं। उन्होंने अपनी पुत्रियों को लिपि (लिखने) का और अंक (संख्या) का ज्ञान दिया। यह 'आदिपुराण' अपभ्रंश भाषा के महाकवि पुष्पदन्त द्वारा दसवीं शताब्दी (ई. सन् ९५९-९६५) में रचित 'महापुराण' का प्रारम्भिक भाग है जिसमें तीर्थंकर ऋषभदेव' का चरित वर्णित है। एक दिन सभा में देवाङ्गना नीलांजना के नृत्य करते हुए विलीन हो जाने के कारण ऋषभदेव को वैराग्य हो गया। उन्होंने अपने बड़े पुत्र भरत को राज्य और अन्य पुत्रों को यथायोग्य स्वामित्व तीर्थंकर ऋषभदेव देकर मुनि-जीवन धारण किया। जैन परम्परा के अनुसार काल-चक्र उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप में सदा गतिमान रहता है। इस समय अवसर्पिणी काल का पंचमकाल प्रवहमान है। इस अवसर्पिणी के चौथे काल में चौबीस तीर्थंकरों उन्होंने प्रथम योग छ: माह का लिया। छ: माह समाप्त होने के बाद वे आहार के लिए निकले. में ऋषभदेव प्रथम और वर्धमान महावीर चौबीसवें - अन्तिम तीर्थकर हुए हैं। इससे पूर्व तीसरे काल परन्तु उस समय लोग यह नहीं जानते थे कि मुनियों को आहार किस प्रकार दिया जाता है ! अतः तक का समय भोगभूमि' कहा जाता है। इस काल तक अपने जीवन-निर्वाह के लिए कुछ भी उद्योग विधि न मिलने के कारण उन्हें छ: माह तक भ्रमण करना पड़ा। विहार करते हुए वे हस्तिनापुर पहुंचे। नहीं करना होता । जीवन-निर्वाह के लिए सब प्रकार की सामग्री कल्पवृक्षों से मिल जाती है। किन्तु उस समय वहाँ राजा सोमप्रभ राज करते थे। उनके छोटे भाई का नाम 'श्रेयांस' था। श्रेयांस का इसके बाद परिवर्तन प्रारम्भ होता है। धीरे-धीरे कल्पवृक्षों से आवश्यकता की पूर्ति के लायक सामग्री ऋषभदेव के साथ पूर्वभव का सम्बन्ध था। ऋषभदेव के पूर्वभव में उनकी 'वज्रजंघ' की पर्याय में मिलना कठिन हो जाता है। तब १४ कुलकर जो मनु कहे जाते हैं, लोगों को जीवन निर्वाह से सम्बन्धित ये (राजा श्रेयांस) उनकी श्रीमती' नाम की स्त्री थे। उस समय इन दोनों ने एक मुनिराज को आहार शिक्षा देना प्रारम्भ करते हैं। उसी क्रम में अयोध्या में अन्तिम कुलकर/मनु श्री नाभिराय हुए। उनकी पत्नी दिया था। श्रेयांस को जाति-स्मरण होने से वह सब घटना याद हो आई। इसलिए उन्होंने आहार के मरुदेवी से चैत्र कृष्ण नवमी को ऋषभदेव का जन्म हुआ। लिए आते हुए ऋषभदेव को देखते ही पड़गाह लिया और उन्हें 'इक्षुरस' का आहार दिया। वह आहार वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन दिया गया था, तभी से यह दिन 'अक्षयतृतीया' के नाम से प्रसिद्ध हो कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर लोगों के जीवन-यापन के लिए ऋषभदेव ने उन्हें असि (सैनिक गया। लोगों ने राजा सोमप्रभ, श्रेयांस तथा उनकी रानियों का खूब सम्मान किया। कार्य), मसि (लेखन-कार्य), कृषि (खेती), विद्या (संगीत, नृत्य-गान आदि), शिल्प (विविध वस्तुओं का निर्माण) और वाणिज्य (व्यापार)- इन छ: कार्यों का उपदेश दिया। ऋषभदेव द्वारा आत्म-साधना के फलस्वरूप ऋषभदेव को दिव्यज्ञान केवलज्ञान प्रकट हुआ। अब वे 'सर्वज्ञ' प्रदर्शित इन कार्यों से लोगों की आजीविका चलने लगी। कर्मभूमि' प्रारम्भ हो गयी। उस समय की हो गये। ऋषभदेव ने सर्वज्ञ दशा में 'दिव्यध्वनि' के द्वारा संसार के प्राणियों के लिए हित का उपदेश सारी व्यवस्था ऋषभदेव ने अपनी बुद्धि-कौशल से की इसलिए वे आदिपुरुष, ब्रह्मा, विधाता आदि दिया। वे इस अवसर्पिणी काल में जैन धर्म के प्रवर्तक कहलाये। जीवन के अन्त समय में वे कैलाश संज्ञाओं से व्यवहृत हुए। पर्वत' पर पहुँचे, वहीं से 'मोक्ष' प्राप्त किया। राजा नाभिराय ने यशस्वती (नन्दा) और सुनन्दा नाम की दो राजपुत्रियों से उनका विवाह किया। भारत के पूर्व राष्ट्रपति तथा प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. एस. राधाकृष्णन ने अपनी 'भारतीय दर्शन' कुछ समय बाद उन्होंने पिता के आग्रह से राज्य का भार भी संभाला। आपके शासन से प्रजा अत्यन्त नामक पुस्तक में लिखा है- 'जैन परम्परा के अनुसार जैन दर्शन का उद्भव ऋषभदेव से हुआ। इस सन्तुष्ट हुई। कालक्रम से यशस्वती से भरत आदि सौ पुत्र तथा ब्राह्मी नामक पुत्री हुई और सुनन्दा प्रकार की पर्याप्त साक्षी उपलब्ध है जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि ईसा के एक शताब्दी १. काल-चक्र की गति एक बार सुख से दुःख की ओर होती है, दूसरी बार दुःख से सुख की ओर। सुख से दुःख की ओर गति होने पर उस काल को अवसर्पिणी कहते हैं और दुःख से सुख की ओर गतिवाले काल को उत्सर्पिणीकाल। प्रत्येक काल में छ:-छ: विभाग होते हैं१. अतिसुखरूप - सुखमा-सुखमा २. सुखरूप सुखमा ३. सुख-दुःखरूप- सुखमा-दुखमा ४. दुःख-सुखरूप दुखमा-सुखमा ५. दुःखरूप-दुःखमा, और ६. अतिदुःखरूप- दुखमा-दुखमा। प्रत्येक उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल के चौथे विभाग (दुखमा-सुखमा) में चौबीस तीर्थकर होते हैं जो जैन धर्म का प्रचार करते हैं। तीर्थकर किसी नये सम्प्रदाय या धर्म का प्रवर्तन नहीं करते अपितु अनादिनिधन आत्मधर्म का स्वयं साक्षात्कार कर वीतरागभाव से उसकी पुनर्व्याख्या या प्रवचन करते हैं। Jain Education Interation For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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