Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant,
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan
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आदिनाथ ऋषभदेव स्तुति
जय भुवणभवणतिमिरहरदीव जय सुइसंबोहियभव्वजीव। जय भासियएयाणेयभेय जय णग्ग णिरंजण णिरुवमेय। सकयत्थई कमकमलाई ताई तुह तित्थु पसत्थु गयाइं जाई। णयणाई ताई दिट्ठो सि जेहिं सो कंतु जेण गायउ सरेहिं । ते धण्ण कण्ण जे पई सुणंति ते कर जे तुह पेसणु करंति। ते णाणवंत जे पई मुणंति ते सुकइ सुयण जे पई थुणंति। तं कव्वु देव जं तुज्झु रइउ सा जीह जाइ तुह गाउं लइउ। तं मणु जं तुह पयपोमलीणु तं धणु जं तुह पूयाइ खीणु । तं सीसु जेण तुहुं पणविओ सि ते जोइ जेहिं तुहं झाइओ सि। तं मुहुं जं तुह संमुहउं थाइ विवरंमुहं कुच्छियगुरुहुँ जाइ। तेल्लोक्कताय तुहुँ मज्झु ताउ धण्णेहिं कहिं मि कह कह व णाउ॥
- महापुराण (१०.७)
(दिशाओं के लोकपालों को कैंपानेवाले चक्राधिप भरत ने स्तुति प्रारम्भ की -)
- विश्वरूपी भवन के अंधकार के दीप, आपकी जय हो! आगम से भव्य जीवों को सम्बोधित करनेवाले, आपकी जय हो! एकानेक भेदों को बतानेवाले, आपकी जय हो! हे दिगम्बर, निरंजन और अनुपमेय, आपकी जय हो! वे चरणकमल कृतार्थ हो गये जो तुम्हारे प्रशस्त तीर्थ के लिए गये। वे नेत्र कृतार्थ हैं जिन्होंने तुम्हें देखा; वह कण्ठ सफल हो गया जिसने स्वरों से तुम्हारा गान किया। वे कान धन्य हैं जो तुम्हें सुनते हैं; वे हाथ कृतार्थ हैं जो तुम्हारी सेवा करते हैं। वे ज्ञानी हैं जो आपका चिन्तन करते हैं; वे सज्जन और सुकवि हैं जो तुम्हारी स्तुति करते हैं। हे देव! काव्य वह है जो तुममें अनुरक्त है। जीभ वह है जिसने तुम्हारा नाम लिया है। वह मन है जो तुम्हारे चरण-कमलों में लीन है। वह धन है जो तुम्हारी पूजा में समाप्त होता है, वह सिर है जिसने तुम्हें प्रणाम किया है। योगी वे हैं जिनके द्वारा तुम्हारा ध्यान किया गया। वह मुख है जो तुम्हारे सम्मुख स्थित है। जो विपरीत मुख हैं वे कुगुरुओं के पास जाते हैं। हे त्रैलोक्य पिता, तुम मेरे पिता हो (इसलिए मैं धन्य हूँ), मुझ धन्य के द्वारा (आपका स्वरूप) ज्ञात है।
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