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३२ | अध्यात्म-प्रवचन
अध्यात्मवादी दर्शन यह कैसे स्वीकार कर सकता है, कि जीवन की जिस उच्चतम और पवित्रता का हम चिन्तन तो कर सकें, किन्तु जीवन में उसका अनुभव न कर सकें। मैं उस साधना को साधना मानने के लिए तैयार नहीं हैं, जिसका चिन्तन तो आकर्षक एवं उत्कृष्ट हो, किन्तु वह चिन्तन साक्षात्कार एवं अनुभव का रूप न ले सके। केवल कल्पना एवं स्वप्नलोक के आदर्श में भारत के अध्यात्मवादी दर्शन की आस्था नहीं है, होनी भी नहीं चाहिए । यहाँ तो चिन्तन को अनुभव बनना पड़ता है और अनुभव को चिन्तन बनना पड़ता है। चिन्तन और अनुभव यहाँ सहजन्मा और सदा से सहगामी रहे हैं। उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। मानव-जीवन का आदर्श स्वप्नलोक की वस्तु नहीं है कि ज्यों-ज्यों उसकी ओर आगे बढ़ते जाएँ, त्यों-त्यों वह दूर से दूरतर होती जाए। आदर्श उस अनन्त क्षितिज से समान नहीं है, जो दृष्टिगोचर तो होता हो, किन्तु कभी सुलभ न हो। धरती और आकाश के मिलन का प्रतीक वह क्षितिज, जो केवल दिखलायी तो पड़ता है, किन्तु वास्तव में जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता । मानव-जीवन का आदर्श इस प्रकार का नहीं है। भारत का अध्यात्मवादी दर्शन मानव-जीवन के आदर्श को भटकने की वस्तु नहीं मानता । वह तो जीपन के यथार्थ जागरण का एक मूल-भूत तत्त्व है। उसे पकड़ा जा सकता है, उसे ग्रहण किया जा सकता है और उसे जोवन के धरातल पर शत-प्रतिशत उतारा जा सकता है। मोक्ष केवल आदर्श ही नहीं, बल्कि, वह जीवन का एक यथार्थ तथ्य है । यदि मोक्ष केवल आदर्श ही होता, यथार्थ न होता, तो उसके लिए साधन और साधना का कथन ही व्यर्थ होता । मोक्ष अदृष्ट दैवी हाथों में रहने वालो वस्तु नही है, जिसे मनुष्य प्रथम तो अपने जीवन में प्राप्त ही न कर सके, अथवा प्राप्त करे भी तो रोने-धोने, हाथ पसारने और दया की भीख माँगने पर, अन्यथा नहीं । जैन-दर्शन में स्पष्ट रूप से कहा है कि, साधक ! मुक्ति किसी दूसरे के हाथों की चीज नहीं है। और न वह केवल कल्पना एवं स्वप्नलोक की ही वस्तु है, बल्कि, वह यथार्थ की चीज है। जिसके लिए प्रयत्न और साधना की जा सकती है तथा जिसे सतत अभ्यास के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। जैन-दर्शन ने स्पष्ट शब्दों में यह उद्घोषणा की है, कि प्रत्येक साधक के अपने ही हाथों में मुक्ति को अधिगत करने का उपाय एवं साधन है । और वह साधन क्या है सम्यक् दर्शन ? सम्यक् ज्ञान और सम्यक्
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