Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
View full book text
________________
आप पद पायवे को श्रुत सो बखान्यो जिन, ताते आत्मीक ज्ञान सब में महतु है।। वहीं, २३ दया-दान-पूजा-सील संजमादि सुभ भाव, ए हूँ पर जाने नाहिं इनमें उम्हैया हैं। सुभासुभ रीति त्यागे जागे हैं सरूप माहि, तेई ज्ञानवान चिदानन्द के रमैया हैं। वहीं, २५
"उपदेश सिद्धान्तरत्न" में भी अशुद्ध भाव के त्याग का उपदेश इन शब्दों में वर्णित हैं
भावना स्वरूप भाये भवपार-पाइयत. ध्याये परमात्मा को होत यो महतु हैं। तारौं शुद्ध भाव करि तजिये अशुद्ध भाव, यह सुख मूल महा मुनिजन कहतु हैं।। (पद्य ८३) आत्मानुभूति
निज शुद्धात्मानुभूति सम्यग्दर्शन का ज्ञापक लक्षण कहा गया है। पण्डित कासलीवालजी इसे ही सम्पूर्ण ग्रन्थों का मूल कहते हैं। उनके ही शब्दों में
सकल ग्रन्थ को मूल यह, अनुभव करिये आप। आतम आनन्द ऊपजे, मिटे महा भव-ताप||१४||
(उपदेशसिद्धान्त) आत्मानुभूति क्या है? इसके सम्बन्ध में पं, दीपचंद जी कासलीवाल "अनुभवप्रकाश" मैं कहते हैं
"कोई कहेगा कि आज के समय में निज स्वरूप की प्राप्ति कठिन है. क्योंकि) परिग्रहवन्त तो बहिरात्मा है, इसलिये स्वरूप प्राप्त करने की रुचि मिटा दी। किन्तु आज से अधिक परिग्रह चतुर्थ कालवर्ती महापुण्यवान नर चक्रवर्ती आदि के था, तब इसे तो अल्प है। वह परिग्रह जोरावरी से इसके परिणामों में नहीं आता। यह स्वयं ही दौड़-दौड़ कर परिग्रह में फँसता है।. ...... अब श्रीगुरु प्रताप से सत्संग प्राप्त करो, जिससे भवताप मिर्ट। अपने को अपने में ही प्राप्त करे, झानलक्षण से पहचाने अपना चिन्तवन करे, निज परिणति बढ़ाये, निज में लौ लगार्य,