Book Title: Adhyatma Kalpdrum
Author(s): Manvijay Gani
Publisher: Varddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 14
________________ ४३८ ४३९ ४४१ ४४२ ४४८ ४५१ ४५५ द्वादशः देवगुरुधर्मशुद्धचाधिकारः गुरुतत्त्वकी मुख्यता सदोष गुरुके बताये हुए धर्म भी सदोष होते हैं । स्वयं डये और दूसरसेंको डुबानेवाला कुगुरु शुद्ध देव और धर्मकी उपासना करनेका उपदेश कुगुरुके उपदेशसे किया हुआ धर्म भी निष्फल है बीरको विनति-शासनमें लुटेरोंका बल अशुद्ध देव-गुरु-धर्म-भविष्यमें चिन्ता अशुद्ध गुरु मोक्षप्राप्ति नहीं करा सकता-दृष्टांत तात्त्विक हित करनेवाली वस्तु धर्ममें लगानेवाले ही सधे माता-पिता हैं संपत्तिके कारण विपत्तिके कारण परभवमें सुख मिलने निमित्त पुण्यधन सुगुरु सिंह, कुगुरु सियार गुरुके योग होनेपर भी प्रमादको करे वह निर्भागी है देवगुरु-धर्मपर अन्तरंग प्रीति विना जन्म असार है देव-संघादि कार्यमें द्रव्यव्यय __ त्रयोदशो यतिशिक्षोपदेशाधिकारः मुनिराजका भावनामय स्वरूप ( An Ideal Munihood.) साधुके वेश मात्रसे मोक्ष नहीं मिल सकता है बेश मात्रसे कुछ नहीं मिल सकता है केवल वेश धारण करनेवालेको तो उल्टे दोष प्राप्त होते हैं बायवेश धारण करने का फल वर्तन रहित लोकरंजन, बोधिवृक्षकी कुल्हाडी, संसारसमुद्र में पतन लोकसत्कारका हेतु, गुण विक गति यतिपनका सुख और कर्तव्य ज्ञानी भी प्रमादके वशीभूत होजाता है-इसके दो कारण यतिके सावध आचरण करने में मृषोक्तिका दोष यतिके सावध आचरणमें प्रवंचनका दोष संयमके लिये यस्न न करनेवालको हितबोध . ८ ४ . ४७७ ४८४ ४८५ ४८९ ४९४ ४९५ ४९. ४९८

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