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पुण्य कला
परमदर्शी आचार्यों ने अपने गम्भीर चिन्तन के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला कि धर्माराधना के बिना जीवन में सच्ची शान्ति नहीं मिलती। संसार की समस्त कलाएं, निपुणताएं और विशेषताएं जीवन को तब तक समुन्नत और सफल नहीं बना सकती, जब तक कि उनमें पुण्य-कला की प्रधानता नहीं होती । आत्मार्थी ऋषियों का यह कथन अक्षरश: सत्य है कि
[ २ ] साधना के स्वर
सकलापि कला कलावतां, विकला पुण्यकलां बिना खलु । सकले नयने वृथा यथा, तनुभाजां हि कनीनिकां बिना ||
जिस प्रकार तारा (पुतली) विहीन नयन व्यर्थ है, वैसे ही धर्म भक्ति विहीन व्यक्ति का जीवन भी बेकार है -- पुण्यविहीन व्यक्ति जलहीन बादल के समान है। वस्तुतः जीवन में प्राण का संचार करने वाली शक्ति धार्मिकता ही है। यही कारण है कि सब तरह से समृद्ध और सम्पन्न सम्राट श्रेणिक को भी प्रभु महावीर के चरणों में सच्ची शान्ति एवं पुण्य- पीयूष पान के लिये जाना पड़ा। आनन्द और शिवानन्दा ने भी पारस्परिक सहयोग से आध्यात्मिक रस का पान कर जीवन को सफल बनाया। इन सब उदाहरणों से यह भली भांति समझा जा सकता है कि जीवन का उद्देश्य केवल जीना और लोक साधना ही नहीं है। उदर-पूर्ति, ऐश-आराम और धन-संग्रह ही यदि जीवन का परम उद्देश्य होता तो स्वयं भगवान महावीर को भी साधना के इस कठिन पथ से गुजरना नहीं पड़ता।
सौन्दर्योपासना की आंधी
मगर आज की तो हवा ही बदली हुई है। भौतिकता की चकाचौंध में लोग आध्यात्मिकता को भूलते जा रहे हैं। पाश्चात्य देशों से प्रभावित होकर आज का मानव प्रधानतः सौन्दर्य का उपासक बनता जा रहा है। पाश्चात्य संस्कृति सुन्दरता की
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