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पार एक दिन उस अपन घ हाया महना वा स मानत सtin भार सम्यता पोथी पर हरताल फेरनी होगी। लोभ की भाग सर्वग्राही होती है । व्यास ने कहा है :
नाच्छित्वा परमणि, नाकृत्वा कम दुष्करम् ।
नाहवा स्पघातीय प्राप्नोति महतीं प्रियम् ॥ बिना दूसरों के ममं का छेदन किये, विना दुष्कर कम क्येि. विना मत्स्यपाती की भांति हनन किये (जिस प्रकार धीवर अपने स्वार्थ के लिए निर्दयता । सकडो पालियो को मारता है) महती श्री प्राप्त नहीं हो सकती । लोभ के पशीभूत होकर मनुष्य और मनुष्यो का समूह प्रधा हो जाता है, उसके लिए कोई काम, कोई पाप, प्रकरणीय नहीं रह जाता। लोभ और लोभजन्य मानस उस समय पतन की पराकाष्ठा को पहुँच जाता है, जब मनुष्य अपनी परपीडन-प्रवृत्ति को परहितकारक प्रवृत्ति के रुप में देखने लगता है, किसी का दोपण-उत्सीड़न करते हुए यह समझने लगता है कि मैं उसका उपकार कर रहा हूँ। बहन दिनो की बात नहीं है, पूरोप वालों के साम्राज्य प्रायः सारे एशिया और मीरा पर फैले हए थे। उन देशों के निवासियों का सोपण हो रहा था, उनकी मानवता कचली जा रही थी, उनके पात्म-सम्मान का हनन हो रहा था, परन्तु यूरोपियन कहना था कि हम सोक्तंव्य का पालन कर रहे हैं, हमारे कन्धों पर हाट भैस बन (गोरे मनुष्य का बोझ) है. हमने अपने कार इन लोगों को फार उठाने का वापिस्व ले रखा है। धीरे-धीरे इनको सम्प बना रहे हैं। सम्यताको कसोटी भी पक-ययक होती है। ईसास हए, मैंने एक कहानी पत्री यो । भी तो कहानी ही, पर रोचक भी ची पोर पश्चिमी सम्पना पर कुछ प्राण गलती हुई भी। एकच पादरी मीरा को पिसी नर-मास-मसी जंगली जानियो के बीच काम कर रहे थे । छ दिन बाद सौटकर काम गये पौर एक गाजनिक सभा में उन्होने अपनी सफलता की पर्चा की। शिमी ने पूछा, "पर उन लोगो ने नर-मांस खाना छोड़ दिया है ।" उन्होंने कहा, "नहीं; सभी ऐमा सो नहीं पा, परब यो हो हाप से साने के स्थान पर एकादे से काने लगे हैं।" मेरे पहने का तात्पर्य यह है कि म ममय पर परापार पप जाता,जस मनुष्य की पात्म-वमना स सीमा तब परेच जाती है कि पार पबन जाता है। विभ्रष्टानां भवति शितिपात .