Book Title: Aacharya Shree Tulsi
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Atmaram and Sons

View full book text
Previous | Next

Page 134
________________ ११२ प्राचार्यश्री तुलसी थे, लेकिन ऐसा लगा मानो हमारा पारस्परिक परिचय बहुत पुराना हो । उसके उपरान्त श्राचार्यश्री से अनेक बार मिलना हुमा । मिलना ही नहीं, उनसे दिल खोल कर चर्चाएं करने के अवसर भी प्राप्त हुए । ज्यों-ज्यों में उन्हें नजदीक से देखता गया, उनके विचारों से अवगत होता गया, उनके प्रति मेरा अनुराग बढ़ता गया । हमारे देश में साधु-सन्तों की परम्परा प्राचीन काल से ही चली भा रही है । प्राज भी साधु लाखो की संख्या में विद्यमान है; लेकिन जो सच्चे साधु है, उनमें से अधिकांश निवृत्ति-मार्गी है । वे दुनिया से बचते हैं और अपनी प्रात्मिक उन्नति के लिए जन-रव से दूर निर्जन स्थान में जाकर बसते है । मात्म-कल्याण को उनकी भावना और एकान्त में उनकी तपस्या निःसन्देह सराहनीय है, पर मुझे लगता है कि समाज को जो प्रत्यक्ष लाभ उनसे मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता । रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा है, "मेरे लिए मुक्ति सब कुछ त्याग देने में नहीं है। सृष्टिकर्ता ने मुझे गणित बन्धनो में दुनिया के साथ बाँध रसा है ।" प्राचार्यश्री तुलसी इसी मान्यता के पोषक हैं। यद्यपि उनके सामने त्याग का ऊंचा आदर्श रहता है और वे उसकी भोर उत्तरोतर पर होते रहते हैं, तथापि वे समाज और उसके मुख-दुख के बीच रहते हैं और उनका मनि प्रयत्न रहता है कि मानव का नैतिक स्तर ऊंचा उठे, मानव सुखी हो और समूची मानव-जाति मिलकर प्रेम से रहे। एकप के माघानं भवदय है। लेकिन उनको करना सकीर्ण परिधि से प्रावृत नहीं है। ये सबके हित का चिन्दन करते हैं और समाज-सेवा उनकी साधना का मु पग है । पहा करते थे कि समाज कोई मनुष्य है पर यदि मनुष्य का जोवन गुड हो जाए तो समाजमा सुपर जाएगा। इसलिए उनका और हमेशा मानव की सुविता पर रहता था। यही बात प्राचार्यश्री तुलसी के साथ है। वे बार-बार कहते है कि हर आदमी को अपनी घोर देखना चाहि कोना चाहिए। वर्तमान युग की प्रशान्ति को देखकर होगी ?" झामंत्री एक बार एक छात्र ने उनसे पू-दुनिया में उदास दिनमा '

Loading...

Page Navigation
1 ... 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163