Book Title: Aacharya Shree Tulsi
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 151
________________ १२६ द्वितीय संत तुलसो और बताया कि व्रत प्रान्दोलन के किसी भी नियम को क्सोटो पर मैं खरा हीं उतर सकता; तब ऐसी स्थिति में इस विषय पर लिखने का मुझे क्या अधिकार है ? मुनिश्री ने कहा कि प्रणव्रत का मूलाधार सत्य है और सत्यपण कर आपने एक नियम का पालन तो कर ही लिया । इसी प्रकार प्राप अन्य नियमों का भी निर्वाह कर सकेंगे। मुझे कुछ प्रोत्साहन मिला और मैंने व्रत तथा प्राचार्यथी तुलसी के कतिपय ग्रन्थों का अध्ययन कर कुछ समझने की चेष्टा की सौर एक छोटा-सा लेख मुनिश्री की सेवा मे प्रस्तुत कर दिया । देख अत्यन्त साधारण था. तो भी मुनिश्री की विशाल सहृदयता ने उसे अपना लिया। तब से प्रणुव्रत को महत्ता को कुछ ग्रांकने का मुझे सौभाग्य मिला और मेरी यह भ्रान्ति भी मिट गई कि सभी धर्मोपदेशक तथा सत निरे परोपदेशक ही होते हैं। सत्र तो यह है कि गोस्वामी तुलसी की वाणी की वास्तविक सार्थ क्ता मैने भाचार्यश्री तुलसी के प्रवचन में प्राप्त की । जीवन और मृत्यु गोस्वामी तुलसी ने नैतिकता का पाठ सर्वप्रथम अपने गृहस्थ जीवन में प्रौर स्वयं अपनी गृहिणी से प्राप्त किया था, किन्तु अाचार्यश्री तुलसी ने तो बारम्भ से ही साधु-वृत्ति प्रपना कर अपनी साधना को नैतिकता के उस सोपान पर पहुँचा दिया है कि गृहस्य और सन्यासी, दोनो ही उससे कृतार्थ हो सकते हैं । तुनमो-कृत रामचरितमानस को सृष्टि गोस्वामी तुलसी ने 'स्वान्त सुखाय' के उद्देश्य से की, विन्तु वह 'सर्वान्त सुखाय' सिद्ध हुआ, क्योकि संन्दों की सभी विभूतियों और सभी कार्य श्रन्यो के लिए ही होते प्राये हैं- परोपकाराय सत विभूतयः | फिर प्राचार्यश्री तुलसी ने तो प्रारम्भ से ही प्रपने सभी कृत्य परार्थ ही किये हैं और परार्थ को हो स्वार्थ मान लिया है। यही कारण है कि उनके अणुव्रत प्रान्दोलन मे वह शक्ति समायी हुई है जो परमाणु दाक्ति सम्पन्न बम मे भी नहीं हो सकती, क्योंकि अणुव्रत का लक्ष्य रचनात्मक एवं विश्वकल्याण है और प्राणविक घम्त्रों का तो निर्माण हो विश्व-सहार के लिए किया जाता है । एक जीवन है तो दूसरा मृत्यु । जोवन मृत्यु से सदा ही बडा सिद्ध हु है और पराश्य मृत्यु की होती है, जीवन वो नहीं । नागासाकी तथा हिरोशिमा में इतने बड़े विनाश के बाद भी जीवन हिलोरें ले रहा है और मृत्यु

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