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परम साधक तुलसीजी
श्री रिपभदास रांका सम्पादक, जैन जगत
बारह साल पहले मैं प्राचार्यश्री तुलसीजी से जयपुर में मिला था। तभी से परस्पर में मारपण भौर प्रात्मीयता बराबर बढती रही है। यद्यपि पिछले कुछ वर्षों से इच्छा रहते हुए भी मैं जल्दी-जल्दी नही मिल पा रहा है, फिर भी निकटता का सदा अनुभव होता रहता है और आज भी उस अनुभव का मानन्द पा रहा हूँ।
व्यक्ति का जन्म कब हुमा मोर उसको कितने साल की उम्र हुई, यह कोई महत्त्व की बात नहीं है। पर उसने अपने जीवन में जो कुछ वैशिष्ट्य प्राप्त किया, कोई विशेष कार्य किया हो, वही महत्त्वपूर्ण बात है।
इस जिम्मेदारी को सौंपते समय उनकी आयु बहुत बड़ी नहीं थी। उनके सम्प्रदाय में उनसे वयोवृद्ध दूसरे संत भी थे; परन्तु उनके गुरु कालूगरणीजी ने योग्य चुनाव किया, यह तुलसोजी ने माचार्य पद के उत्तरदायित्व को उत्तम प्रकार से निभाया, इससे सिद्ध हो गया । कुछ प्राशंकाएँ
बैसे किसी तीर्थकर, भवतार, पैगम्बर, मसीहा ने जो उपदेश दिया हो उसको समयानुसार व्यास्था करने का कार्य माचार्य का होता है । उसे तुलसीजी ने बहुत ही उत्तम प्रकार से विया, यह पहना ही होगा। कुछ लोग उन्हें प्राचीन परम्परा के उपासक मानते हैं और कुछ उस परम्परा में प्रान्ति करने वाले भी। पर हम कहते हैं कि वे दोनों भी जो कहते हैं, उसमें कुछ-न-कुछ सत्य जरूर है, पर पूर्ण सत्य नहीं है । तुलसीनी पुरानी परम्परा या परिपाटी पलाते हैं, यह मेक है; पर शाश्वत सनातन धर्म को नये शब्दों में रहते हैं,