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द्वितीय संत तुलसी
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राग्यनिषिद्ध वस्तु का व्यापार व पायाव-निर्यात नहीं करूगा, ४. व्यापार में मप्रामाणिकता नही वरतंगा।
४, ब्रह्मचर्य-१. सवेसु वा उत्तम मधेरं (जैन), २. मा ते कामगुणे रमासु चित, (बौद्ध), ३. सह्मवर्येण तपसा देवा मृत्युमपानल (वेद)।
ब्रह्मवयं अहिंसा का स्वात्परमणात्मक पक्ष है। पूण ब्रह्मवारी न बन सकने की स्थिति में एक पलीव्रत का पालन अणुवती के लिए अनिवार्य व्हाया
५. अपरिग्रह-(1) इच्छा है प्रागाससमा मगंतया (जन), (२) तहासयो सब दुक्ख जिनाति (बौद्ध), (३) मा गध कस्विद्धनम् (वैदिक) परिग्रह का तात्पर्य सग्रह से है। किसी भी सद्गृहस्थ के लिए सग्रह की भावना से पूर्णतया विरत रहना प्रसम्भव है। प्रत अणुव्रत मे अपरिग्रह से संग्रह का पूर्ण निषेध का तात्पर्य न लेते हुए अमर्यादित सग्रह के रूप में गृहीत है। भगुवती प्रतिज्ञा करता है कि वह मर्यादित परिणाम से अधिक परिग्रह नहीं रखेगा। वह घस नही लेगा । लोभवश रोगो की विवित्सा मे अनुचित समय नहीं लगायेगा। विवाह प्रादि प्रसगों के सिलसिले में दहेज नहीं लेगा, मादि।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रणवत विशुद्ध रूप में एक नैतिक सदाचरण है और यदि इस अभियान का सफल परिणाम निकल सका तो वह एक सहस्त्र कानूनों से कहीं अधिक कारगर सिद्ध होगा और भारत या अन्य किसी भी देश में ऐसे पाचरण से प्रजातन्त्र को सार्थकता चरितार्थ हो सकेगी। प्रजातन्त्र धर्मनिरपेक्ष भले ही रहै, किन्तु जब तक उसमे नैतिकता के किसी मर्यादित माफदण्ड की व्यवस्था की गुंजाइश नहीं रखी जाती, तब तक बह वास्तविक स्वतन्त्रता की सुप्टि नहीं कर सकता मोर न ही जनसाधारण के आर्थिक स्तर को ऊंचा उठा सकता है। स्वतन्त्रता की पोट में स्वच्छन्दता और आर्थिक उत्थान के रूप में परिग्रह तथा शोषण को ही खुलकर खेलने का मौका तब तक निस्सदेह बना रहेगा, जब तक इस माणविक युग मे विज्ञान की महत्ता के साथसाथ प्ररणवत-जैसे किसी नैतिक बन्धन की महत्ता को भी भली-भांति का नहीं जाता। विश्व शान्ति को कुञ्जी भी इसी नैतिक साधन मे निहित है। वस्तुत: पंचशील, सह-अस्तित्व, धार्मिक सहिष्णुता अणुव्रत के प्रोपाग जैसे ही हैं। प्रतः प्राचार्यश्री तुलसी का प्रणुव्रत-मान्दोलन माज के मणयुग की एक