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द्वितीय सत तुलसी
१३३ बाद प्राधिक स्वतन्त्रता का भूनाधार भी मान बैठे हैं ।
भरणुव्रत के प्रवर्तक प्राचार्यश्री तुलसी के पशब्दों में भारतीय परम्परा में महान् वह है जो त्यागी है। यहाँ का साहित्य त्याग के यादों का साहित्य है। जीवन के चरम भाग में निम्रन्थ या सन्यासी बन जाना तो महज वृत्ति है हो, जीवन के प्रादि भागों में भी प्राण्या प्रादेय मानी जाती रही है यदहरेव विरजेन तवहरेव प्रजेत् ।
त्यागपूर्ण जीवन महानत की भूमिका या निर्गन्य वृति है । यह निरपवाद संयम मार्ग है, जिसके लिए अत्यन्त विरक्ति की अपेक्षा है। जो व्यक्ति भत्यन्त विरक्ति और अत्यन्त प्रविरक्ति के बीच की स्थिति में होता है, वह मानती बनता है। प्रानन्द गाथापति भगवान् महावीर से प्रार्थना करता है-- भगवन् ! आपके पास बहुत सारे व्यक्ति निर्यस्य बनते हैं, किन्तु मुझमे ऐसी शक्ति नही कि मैं निन्य बनें । इसलिए मैं मापके पाम पांच अणुव्रत मौर सात शिक्षावत; द्वादश नाप नही धर्म स्वीकार हिंगा।"
यहाँ शक्ति का अर्थ है--विरविन । ससार के प्रति, पदार्थों के प्रति, भोगउपभोग के प्रति जिममे विरक्ति का प्रावल्प होता है, वह निग्रन्थ बन सकता है। महिंसा मौर अपरिग्रह का व्रत उसका जीवन-धर्म बन जाता है । वह वस्तु सबके लिए सम्भव नही । बत का प्रणु-हर मध्यम मार्ग है । प्रवती जीवन शोषण मौर हिंसा का प्रतीक होता है पोर महावती जीवन शक्य । इस दशा में प्रा. वती जीवन का विकल्प ही शेष रहता है।
पएबल का विधान वनो या समीकरण या सयम पोर प्रसथम. सत्य प्रार पसरप, पहिंसा पोर हिमा, अपरिपह पोर परिग्रह का मिथए नहीं, अपितु जोवन सी न्यूनतम मर्यादा का स्वोकरण है। पारित्रिक मान्दोलन
पणुनत मान्दोलन भूलत. पारिधर पान्दोलन है। नैतिकता पौर सत्यापरण हो इमो मूलमय है। पारम-विवेचन मोर मान-परीक्षण इसके साधन
१. नो सानु मह सहा वामि मुणे पार पातए । प्रहन रेवारणपिया प्रतिए पापा सबसविह मिहिषम्म मिसामि।
--उपाति , म..