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द्वितीय संत तुलसी
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बाद प्राधिक स्वतन्त्रता का भूलाधार भी मान बैठे हैं।
अणुबन के प्रवर्तक भाचार्यश्री तुलसी के शब्दो में भारतीय परम्परा में महान् वह है जो त्यापी है। यहाँ का साहित्य त्याग के पाशों का साहित्य है। जीवन के परम भाग में नियंग्य या सन्यासी बन जाना तो सहज वृत्ति है ही, जीवन के प्राधि भागों में भी प्रव्रज्या प्रादेय मानी जाती रही है । पहरेव विर.
तबहरेव प्रबत्।
स्यागपूर्ण जीवन महावत की भूमिका या निर्गन्य पति है । यह निरपवाद सयम माग है, जिसके लिए प्रत्यन्त विरक्ति को अपेक्षा है। जो व्यक्ति प्रत्यन्त विरक्ति और प्रत्यन्त प्रविरक्ति के बीच को स्थिति में होता है, वह मरणप्रती बनता है। मानन्द गाथापति भगवान् महावीर से प्रार्थना करता है-'भगवन् ! अापके पास बहुत सारे व्यक्ति निन्थ बनते हैं, किन्तु मुझमें ऐसी शक्ति नहीं कि मैं निग्रंन्य बनं । इसलिए मैं मापके पास पांच प्रणवत भौर सात शिक्षाबत द्वादश वरूप ग ही धर्म स्वीकार कहेगा।"
यहाँ शक्ति का अर्थ है--विरक्ति । संसार के प्रति, पदार्थों के प्रति, भोगउपभोग के प्रति जिसमे विरक्ति का प्राबल्य होता है, वह नियन्य बन सकता है। अहिंसा और मपरिग्रह का व्रत उसका जीवन-धर्म बन जाता है । यह वस्तु सबके लिए सम्भव नहीं। बत बामण-हन मध्यम मार्ग है। प्रती जीवन शोषण और हिंसा का प्रतीक होता है और महावती जोवन शाक्य । इस दशा में प्रण वती जीवन का विकल्प ही शेष रहता है।
परण्यत का विधान बलों का समीकरण या सयम पौर प्रसंथम, सम और मसाम, महिला और हिंसा, अपरिग्रह पोर परिग्रह का पिपरा नहीं, मषित जीवन को न्यूनतम मर्यादा का स्वोकरण है। चारित्रिक मान्दोलन
मणुवत-प्रान्दोलन भूलत. चारित्रक प्रान्दोलन है। नतिरता और सत्या. परण हो इसके पूनमंत्र है । पारम-विवेचन प्रौर मात्म-परीक्षण समापन
१. को सात मह तहा सवामि भणे पाय परातर। प्रहम्प देवाएं. पिराण प्रन्तिए पाणारा रासविहं गिहियाम परिवमिस्तानि ।
--उपासकरमांक, ६०१