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भाचार्यश्री तुनी पनिक की भोर से ही मायोजित सभाको अभ्यराना प्राचार्यत्री कर रहे थे। पो सो मुझे यह सगा कि पाचार्यजी म यक्ति को प्रागे नहीं बोलते देंगे; क्योकि सभा में कुछ ऐगा वातावरण उम पनिक के विशेष कर्मचारियों ने जान कर दिया था, जिसगे ऐगा लगता था कि पाचार्यजी को समाकी कार्यवाही स्थगित कर देनी पड़ेगी। किन्तु जब प्राचार्यजी ने उस व्यक्ति को सभा के विरोध होने पर भी बोलने का अवसर दिया तो मुझे यह पाशकाबनी रही कसभा जिस गति से त्रिम पोर जा रही है, उमस यह कम प्राशा थी कि तनाव दूर होगा। अपने मालिक का एक भरी ममा मे निरादर देख कर कई जिम्मेदार कर्मचारियो के नथुने फूलने लगे थे। किन्नु प्राचार्यजी ने बड़ी मुक्ति के साथ उस स्थिति को मम्भाला मोर जो सबसे बड़ी विशेषता मुझे उस समय दिखाई दी, वह यह थी कि उन्होंने उस नवयुवक को हतोत्माह नहीं किया, बल्कि उसका समधन कर उस नवयुवक की बात के मौचित्य का सभा पर प्रदर्शन किया। यदि कही उस नवयुवक की इतनी कट पालोचना होती तो वह समाप्त हो गया होता पौर राजनैतिक जीवन में कभी आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेता। किन्तु प्राचार्य जी को कुमलता से वह व्यक्ति भी प्राचार्यजी के सेवों में बना रहा और उस घनिक का भी महयोग प्राचार्यजी के ग्रान्दोलन को क्सिी. न-किसी रूप में प्राप्त होता रहा । एसे बहुत-से अवसर उनके पास बैठ कर देखने का अवसर मुझं मिला है, जब कहोने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के द्वारा बद-सेबड़े संघर्प को चुटकी बजा कर टाल दिया। प्राजकल प्राचार्यजी जिस सुधारक पग को उठा कर समाज में नव जागति का सन्देश देना चाह रहे हैं, वह भी विरोध के बावजूद भी उनके प्रेमपूर्ण व्यवहार के कारण सकीर्णता की सीमा को नि. मिन्द करके मागे बढ़ रहा है। राजस्थान की मरममि में माचार्यजी ने भान और निर्माण की अन्तःमलिला सरस्वती का नये सिरे से मवतरण कराया है। जिससे वह नान राजस्थान की सीमा को छ कर निकद के तीर्थों में भी अपना विशेष उपकार कर रहा है।
विशेष आवश्यकता
उत्तरप्रदेश के एक गांव में जन्म लेने वाला मुझ जैसा व्यक्ति प्रार यह विचार करता है कि भाचार्य तुलसी जैसे अनुपम व्यक्तित्व की हजारों