Book Title: Aacharya Shree Tulsi
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 143
________________ ११६ मानवता के उन्नायक अपने इस गुण के कारण प्रावायंथी ने बहुत से ऐसे व्यक्तियों को भपनी पोर प्राकृष्ट कर लिया है, जो उनके सम्प्रदाय के नहीं हैं। अपनी पहली भेंट से लेकर अब तक के अपने ससर्ग का स्मरण करता हूँ तो बहुत से चित्र प्रांखों के सामने धूम जाते हैं। उनसे अनेक बार लम्बी चर्चाएं हुई हैं, उनके प्रवचन मुने हैं, लेकिन उनका वास्तविक रूप तब दिखाई देता है, जब वे दूसरो के दु.ख की बात सुनते हैं । उनका संवेदनशील हृदय तब मानो स्वय व्ययित ही उश्ता है और यह उनके चेहरे पर उभरते भावों से स्पष्ट देखा जा सकता है। पिछली बार जब वे कलकता गये थे तो वहाँ के कतिपय लोगों ने उनके तथा उनके साधु-साध्वी वर्ग के विरुद्ध एक प्रचार का भयानक तूफान सड़ा किया था। उन्ही दिनो जब मैं कलकत्ता गया और मैंने विरोध की बात सुनी तो भाचार्यश्री से मिला । उनसे चर्चा की। भावायंधी ने बड़े विह्वल होकर कहा--"हम साधु लोग बराबर इस बात के लिए प्रयलशील रहते हैं कि हमारे कारण किसी को कोई पसुविधा न हो । स्थान पर हमारी साध्वियां ठहरी थी, लोगों ने हम से प्राकर कहा कि उनके कारण उन्हें थोड़ी कठिनाई होती है। हम ने तत्काल साध्वियो को वहां से हटाकर दूसरी जगह भेज दिया । यदि हमें यह मालूम हो जाए कि हमारे कारण महाँ के लोगों को परेशानी या मसुविषा होती है तो हम हम नगर को छोड़कर चले जाएंगे।" प्राचार्यधी ने जो कहा, वह उनके अन्तर से उठकर पाया था। भारत-भूमि सदा से प्राध्यात्मिक भूमि रही है और भारतीय संस्कृति की मुंज किसी जमाने में सारे संसार में सुनाई देती थी। भाचार्यश्री को प्रोखों के सामने अपनी सस्कृति तथा सम्यता के चरम शिखर पर खड़े भारत का चित्र रहता है। परने देश से, उसकी भूमि से और उस भूमि पर बसने वाले जन से, उन्हें बड़ी पागा है पौर तभी गहरे विश्वास के साथ कहा करते हैं--"वह दिन माने वाला है, जब कि पशु-बल से उकताई दुनिया भारतीय जीवन से भहिंसा मौर शान्ति को भीख मांगगो!" प्राचार्यश्री पात जीवी हों और उनके हाथों मानवता की अधिकाधिक सेवा , होती रहे, ऐसी हमारो कामना है।

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