Book Title: Aacharya Shree Tulsi
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 145
________________ अनुपम व्यक्तित्व १२३ होगा । जिस तरह से सभा समाप्त होने पर, उस सभा की सभी कार्यवाही प्रायः समास्थल पर ही समाप्त-सी हो जाती है, उसी तरह की धारणा मेरे मन में भाषा के इस भान्दोलन के प्रति थी । कैसे निभाएंगे ? भाजाल जहाँ नगर-निगम का कार्यालय है, उसके बिल्कुल ठीक सामने आचार्यत्री को उपस्थिति में हजारो लोगों ने मर्यादित जीवन बनाने के लिए तरह-तरह की प्रेरणा व प्रतिज्ञाएं ली थी। उस समय वह मुझे नाटक सा लगता था। मुझे ऐसी मनुभूति होती थी कि जैसे कोई कुशल अभिनेता इन मानवमात्र के लोगों को बठपुतली की तरह से नचा रहा है । मेरे मन में बराबर दशका बनी रही। इसना कारण प्रमुख रूप से यह था कि भारत को राजधानी दिल्ली में हर वर्ष इस तरह की बहुत-सी संस्थानों के निकट माने का मुझे अवसर मिला है। उन सस्यामों में बहुत-सी सस्थाएँ असमय में ही बालकलित हो गई। जो कुछ बच्चों, वे श्रापसी दलबन्दी के कारण स्थिर नहीं रह सकीं। इसलिए मैं यह सोचता था कि माज जो कुछ चल रहा है, वह सब टिकाऊ नहीं है । यह बान्दोलन मागे नहीं पनप पायेगा । तब से बराबर अब तक मैं इस प्राग्दोलन को केवल दिल्ली हो में नहीं, सारे देश मे गतिशील देवता है। मैं यह नहीं कह सकता कि यह प्रान्दोलन न किसी एक व्यक्ति का रह गया है। दिल्ली के देहातों तक में और यहां तक कि भुग्गी-झोपड़ियों तक इस प्राग्दोलन ने अपनी जड़े जमा ली हैं । मब ऐसा कोई कारण नहीं दीखता कि जब यह मालूम है कि यह मान्दोलन किसी एक व्यक्ति पर सीमित रह जाए। इस पाग्दोलन ने सारे समाज में ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दिया है कि सभी वर्गों के लोग एक बार यह विचारने के लिए विवश हो उठते हैं कि प्रावि इस समाज में रहने के लिए हर समय उन बातों को मोर जाना ठीक नहीं होगा, जिनका कि मार्ग पतन की पोर जाता है । अन्ततोगत्वा सभी लोग यह विचार करने पर मजबूर दिखाई देते हैं कि सबको मिल-जुलकर एक ऐसा राला जहर योजना चाहिए, जिससे सभी का हित हो सके। समाज में इस रहको बेतना प्रदान करने का श्रेय प्राचार्य तुलसी को ही दिया जा सकता है । उन्होंने बड़े स्नेह के साथ उन हजारों लोगों के हृदयों पर बरबस विजय प्राप्ठ

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