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नैतिक पुनरुत्थान के नये सन्देशवाहक करोड़ों शोषितों और श्रमजीवियों के लिए नई पाशा और मानव जाति के लिए नतिक पुनरुत्थान का नया सन्देश लेकर अवतरित हए हैं।
प्राचार्यश्री तुलसी जैन धर्म के श्वेताम्बर तेरापथ सम्प्रदाय के माध्यात्मिक प्राचार्य हैं । साधारणत: कहा जाता है कि जैन धर्म का सबसे पहले भगवान महावीर ने प्रचार किया, जो भगवान बुद्ध के समकालीन थे। किन्तु अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि जैन धर्म भारत का प्रत्यन्त प्राचीन धर्म है, जिसकी जड़ें पूर्व ऐतिहासिक काल में पहुँची हुई है। लगभग दो सौ वर्ष पूर्व भाचार्य भिक्षु ने जैन धर्म के तेरापथ सम्प्रदाय को स्थापना की। जिसका अर्थ होता है-वह समुदाय जो तेरे (भगवान् के) पथ का मनमरण करता है। प्राचार्य श्री तुलसी इस सम्प्रदाय के नवम गुरु प्रपया माध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक हैं। वल ग्यारह वर्ष की अल्पायु में उन्होंने दीक्षा ग्रहण की मोर फिर ग्यारह वर्ष की प्राध्यात्मिक साधना के पश्चात् वे उस सम्प्रदाय के पूजनीय गुरुपा पर पासीन हए । प्राचार्यश्री तुलसी का हृदय जनसाधारण के कष्टो को देख कर इवित हो गया। उनके प्रति अमीम प्रेम से प्रेरित होकर उन्होने पर व्रत आन्दोलन का मूत्रपात किया। उसका उद्देश्य उच्च नतिक मानदण्ड को प्रोत्साहन देना और व्यक्ति को शुद्ध करना ही नहीं है, प्रत्युत्त जीवन के प्रत्येक पहलू में प्रवेश कर समाज की पुनर्रचना करना है। प्रणवत जीवन का एक प्रकार और समाज की एक कल्पना है। भरवती बनने का अर्थ इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि मनुष्य भला और सच्चा मनुष्य बने । नतिक शास्त्र का प्राविष्कार
प्रत्येक प्रान्दोलन का अपना पादशं होता है और अणुव्रत-आन्दोलन का भी एक प्राइस है। वह एक ऐसे समाज की रचना करना चाहता है, जिसमें स्त्री और पुरुष अपने चरित्र का सोच-समझ कर एरिथम पूर्वक निर्माण करते हैं और अपने को मानव जाति की सेवा में लगाते हैं । मरणुव्रत-पान्दोलन पुरुषों मौर स्त्रियों को कुछ विशेष अभ्यास करने की प्रेरणा देता है, जिनसे लक्ष्य को प्राप्ति होती है। हमारे साधारण जीवन में भी हम को यह विचार करना पड़ता है कि हम को क्या काम करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। फिर भी हम सही मार्ग पर नहीं चल पाते। हम क्यो मसफल होते हैं और किस प्रकार