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प्रथम दर्शन और उसके बाद
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अणुव्रत आन्दोलन का प्रमुख पत्र बना दिया और उसके लिए भारी से भारी लोकापवाद को सहन करते हुए मैं अपने इस व्रत पर अडिग रहा ।
उपेक्षा, उपहास और विशेष
श्रेयाप्ति बहुविघ्नानि को कहावत प्राचार्यथी के इस शुभागमन और महान् नैतिक प्राग्दोलन पर भी चरितार्थ हुई । आन्दोलन को उपेक्षा, उपहास, भ्रम और विरोध का प्रारम्भ मे सामना करना ही पडता है। फिर उसके लिए सफलता की भाँको दीख पडती है । अणुव्रत प्रान्दोलन को उपेक्षा, उपहास का इतना सामना नहीं करना पडा, जितना कि विरोध का | इस विरोधपूर्ण वातावरण में ही अणुव्रत पान्दोलन के प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन का आयोजन दिल्ली में टाउन हाल के सामने किया गया । न केवल राजधानी में, अपितु समस्त देश के कोने-कोने में उसकी प्रतिध्वनि गूंज उठी । कुछ प्रतिक्रिया विदेशों में भी हुई। हमारे देश का कदाचित् ही कोई ऐसा नगर बचा होगा, जिसके प्रमुख समाचारपत्रों मे श्रणुव्रत प्रान्दोलन और सम्मेलन को चर्चा प्रमुख रूप से नहीं की गई और उस पर मुख्य लेख नहीं लिखे गये । बम्बई, कलकत्ता, मद्रास तथा अन्य नगरों के समाचारपत्रों ने बड़ी-बडी भाशाश्री से आन्दोलन एव सम्मेलन का स्वागत किया। बात यह थी कि अनैतिकता और भ्रष्टाचार दूसरे महायुद्ध की देन है और इन बुराइयों से सारे ही विश्व का मानव समाज पीड़ित है। द इनसे मुक्ति पाने के लिए बेचैन है । इससे भी कहीं अधिक विभीषिका विश्व के मानव के सिर पर तीसरे सम्भावित महायुद्ध की काली घटाओं के रूप में मंडरा रही है । तब ऐसा प्रतीत होता था, जैसे कि माचार्यश्री ने मरणुव्रत- प्रोन्दोलन द्वारा मानव को इस पीड़ा व बेचैनी को हो प्रगट किया हो और उसको दूर करने के लिए एक सुनिश्चित अभियान शुरू किया हो, इसीलिए उसका जो विश्वव्यापी स्वागत हुप्रा, वह सबंधा स्वाभाविक था ।
सबसे बड़ा प्राक्षेप
इस विश्वव्यापी स्वागत के बावजूद राजधानी के अनेक क्षेत्रों में अणुव्रतमान्दोलन को देह एवं प्राशका से देखा जाता रहा और उसको अविश्वास