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प्रथम दर्शन और उसके बाद कैसे विरोध, भ्रम, उदासीनता तथा प्रतिकूल परिस्थितियो मे अणुव्रत-पान्दोलन की नाव को सेना पड़ा। इसके विपरीत जिस पर्य, सयम, माहस, उत्साह विश्वास तथा निष्टा से काम लिया गया, उसका परिचय इतने से ही मिल जान चाहिए कि विरोधी पान्दोलन के उत्तर में एक भी हस्त-पत्रिका प्रकाशित नई की गई। एक भी चपतम समाचारपत्रो को नहीं दिया गया और किसी कार्यकर्ता ने अपने किसी भी व्याख्यान म उसका उल्लेख तक नहीं किया-प्रति वाद करना तो बहुत दूर की बात थी। जबकि प्राचायंधी के प्रभाव, निरीक्ष भोर नियात्रा में इम अपूर्व घर्ष और अपार सयम से कार्यकर्ता प्रान्दोलन प्रति अपने वर्तव्य-पालन मे सलान धे, तब यह नो अपेक्षा ही नहीं की जा सकर पो कि पूज्यश्री के प्रवचनों में कभी कोई ऐसी चर्चा की जाती । प्रणवत-सम लन के पधिवेशन में भी कुछ विघ्न डालने का प्रयत्न किया गया, परन्तु सम्पू मधियेशन मे विरोधियों की चर्चा तक नहीं की गई और प्रतिरोप अथवा प्र न्तोष का एक माद भी नहीं कहा गया। मान्दोलन अपने निश्चित मार्म । मक्याहत गति से निरस्तर मागे बड़ा मया । पधिकाधिक सफलता
प्राचायंधी के उस प्रथम दिल्ली-प्रवार में राजधानी के कोने-कोने से म पह-मायोजन का सन्देश पूज्यश्री के प्रवचनो द्वारा पहुंचाया गया और मिर से प्रस्थान करने से पूर्व ही उसके प्रभाव के अनुकूल मासार भी चारों पोखने लग गए थे। राजधानी के पतिरिक्त भासपास के नगरों में पान्दो
देश पर भी अधिक तेजी से फैला । यह प्रकट हो गया कि तपस्या बामना निरपंक नहीं जा पाती। विश्वास, निष्ठा और अक्षा अपना दिलाये बिना नहीं रह सकते। रचनात्मक और नव-निर्मातरम प्रवृनियो मम्फर पनाने के लिए विना भी प्रसन्न क्यों न किया जाए, दे प्रसफल नह मनीपत-पदोलनमा १.१२ वर्ष का इतिहास दम तम्प का साक्षी है कोई भी मोहत्यामारीपन का प्रति प्रयया पानोरन मसानही माता । राजगी को हो दृष्टिगे शिवार या जाए तो पाचालंधी पीर मित्रापरतो कोसा दी और मरो को पोशातीय और वो को पता पौरो शिवित न, पारपंपोर प्रभावशानी रही है। र,